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हिंसक शास्त्रों का विधान
योग - शास्त्र
यज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयम्भुवा । यज्ञोऽस्य भूत्यं सर्वस्य, तस्माद्यज्ञे वधोऽवधः ॥ ३३ ॥
प्रजापति ब्रह्मा ने स्वयं ही यज्ञ के लिए पशुओं की सृष्टि की है । यज्ञ इस समस्त जगत् की विभूति के लिए किया जाता है । अतः यज्ञ में होने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है ।
टिप्पण - 'वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति' अर्थात् वेद में जिस हिंसा का विधान किया गया है, वह हिंसा - हिंसा नहीं है, यह याज्ञिक लोगों का मन्तव्य है । इसका कारण वे यह बतलाते हैं कि यज्ञ के लिए मारे हुए प्राणी स्वर्ग प्राप्त करते हैं । मारने वाले और मरने वाले को भी जब स्वर्ग प्राप्त होता है, तब वह हिंसा त्याज्य कैसे हो सकती है ? इसका स्पष्टीकरण आगे किया गया है ।
प्रौषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यश्वः पक्षिणस्तथा ।
यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छिति पुनः ॥ ३४ ॥
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जो दूर्वा श्रादि औषधियाँ, बकरा आदि पशु यूप आदि वृक्ष, गाय और घोड़ा आदि तिर्यञ्च और कपिञ्जल आदि पक्षी — यज्ञ के निमित्त मारे जाते हैं, वे देव आदि ऊँची योनियों को प्राप्त होते हैं ।
मधुपर्के च यज्ञे च पितृदैवतकर्मणि । अत्रैव पशवो हिस्या, नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः ॥ ३५ ॥
मधुपर्क में, यज्ञ में, पितृकर्म में और देवकर्म में ही पशुओं की हिंसा करनी चाहिए, इनके सिवाय दूसरे प्रसंगों पर नहीं करनी चाहिए । ऐसा मनु ने विधान किया है ।
एष्वर्थेषु पशून् हिंसन् वेदतत्त्वार्थविद् द्विजः । श्रात्मानं च पशू श्चैव, गमयत्युत्तमां गतिम् ॥ ३६ ॥
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