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तृतीय प्रकाश
७५ नाचता है, शोक-मग्न व्यक्ति की तरह रोता है और दाह-ज्वर से पीड़ित व्यक्ति की भाँति जमीन पर लोटता रहता है । मदिरा शरीर को शिथिल कर देती है, इन्द्रियों को निर्बल बना देती है और मनुष्य को मूर्छित कर देती है। जिस प्रकार अग्नि की एक चिनगारी से घास के ढेर का नाश हो जाता है, उसी प्रकार मदिरा पान से विवेक, संयम, ज्ञान, सत्य, शौच, दया और क्षमा आदि सभी गुणों का नाश हो जाता है। मद्य सर्व दोषों का और सब विपत्तियों का कारण है। इसलिये जिस प्रकार एक बीमार व्यक्ति अपथ्य का त्याग कर देता है, उसी प्रकार आत्म-हित का चिन्तन करने वाले साधक को मदिरा का त्याग करना चाहिए। मांस-त्याग
चिखादिषति यो मांसं प्राणिप्राणापहारतः । उन्मूलयत्यसौ मूलं दयाऽऽख्यं धर्मशाखिनः ॥ १८ ॥ अशनीमन् सदा मांसं दयां यो हि चिकीर्षति ।
ज्वलति ज्वलने वल्ली स रोपयितुमिच्छति ॥ १६ ।। प्राणियों के प्राणों का नाश करके जो मांस खाने की इच्छा करता है, वह दया रूपी धर्म-वृक्ष को जड़ से उखाड़ डालता है। जो निरन्तर मांस खाते हुए भी दया करने की इच्छा रखता है, वह जलती अग्नि में बेल लगाने के समान कार्य करता है । तात्पर्य यह है कि मास खाने वाले में दया नहीं टिक सकती।
कुछ व्यक्ति शंका करते हैं कि मांस खाने वाले अथवा जीव मारने वाले, दोनों में से जीव-हिंसा का दोष किसको लगेगा ? प्राचार्य श्री इसका उत्तर देते हैं :
हंता पलस्य विक्रता संस्कर्ता भक्षकस्तथा ।
क्रेतांऽनुमंता दाता च घातका एव यन्मनुः ॥ २० ॥ प्राणियों का हनन करने वाला, मांस बेचने वाला, खाने वाला,
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