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योग- शास्त्र
खरीदने वाला, अनुमोदन करने वाला और देने वाला - ये सभी हिंसा
करने वाले होते हैं । मनु का अभिमत
अनुमंता विशसिता निहता क्रय-विक्रयी ।
संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः ॥ २१ ॥ मनुस्मृति में कहा गया है कि अनुमोदन करने वाला, काटने वाला, मारने वाला, लेने वाला, देने वाला, बनाने वाला, परोसने वाला और खाने वाला - ये सभी प्राणियों के घातक हैं ।
नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत् ।। २२ ।। प्राणी की हिंसा किये बिना मांस उत्पन्न नहीं हो सकता और प्राणी का वध करने से स्वर्ग नहीं मिल सकता। इसलिये मांस भक्षण का त्याग करना ही चाहिए ।
मांस भक्षक ही वधिक है
ये भक्षयत्यन्यपलं स्वकीयपलपुष्टये ।
।
त एव घातका यन्न वधको भक्षकं विना ॥ २३ ॥
अपने मांस की पुष्टि करने के लिये जो मनुष्य अन्य जानवरों का मांस भक्षण करते हैं, वे ही उन जीवों के घातक हैं। क्योंकि यदि खाने वाले ही न हों तो वध करने वाले भी नहीं हो सकते ।
हिंसा-त्याग का उपदेश
मिष्टान्नान्यपि विष्टासादमृतान्यपि मूत्रसात् । स्युर्यस्मिन्नंगकस्यास्य कृते कः पापमाचरेत् ॥ २४ ॥
जिस शरीर में भक्षण किया हुआ मिष्टान्न भी विष्टा रूप में परिणत हो जाता है और अमृतादि पेय पदार्थ भी मूत्र रूप में बदल जाता है, ऐसी असार देह के लिये कौन विवेकी पुरुष पाप का सेवन
करेगा ?
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