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द्वितीय प्रकाश यद्यपि श्रावकों के लिए स्वस्त्री सेवन निषिद्ध नहीं है, तथापि प्रामक्तिपूर्वक स्वस्त्री का भी सेवन करना योग्य नहीं है। ऐसी स्थिति में समस्त पापों की खान परस्त्रियों का सेवन कैसे योग्य हो सकता है ?
टिप्पण-श्रावक स्वस्त्री सन्तोषी होता है। वह स्वस्त्री में भी अति आसक्ति नहीं रखता। अतः परस्त्री-सेवन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। परदार-गमन से हिंसा, असत्य, चोरी आदि समस्त पापों का उद्भव होता है।
जो परस्त्री अपने पति का परित्याग करके परपुरुष का सेवन करती है, उस चंचल चित्त वाली परनारी का क्या भरोसा ? जो अपने पति के साथ विश्वासघात कर सकती है, वह परपुरुष के साथ भी क्यों न करेगी ?
स्वपति या परित्यज्य, निस्त्रपोपपतिं भजेत । तस्यां क्षणिकचित्तायां, विश्रम्भः कोऽन्ययोषिति ॥ ६४ ॥ भीरोराकुलचित्तस्य, दुःस्थितस्य परस्त्रियाम् । रतिर्न युज्यते कर्तुमुपशूनं पशोरिव ॥६५ ।। प्राणसन्देहजननं, परमं वैरकारणम् । लोकद्वयविरुद्धं च, परस्त्रीगमनं त्यजेत् ॥ ६६ ॥ सर्वस्वहरणं बन्धं शरीरावयवच्छिदाम् ।
मृतश्च नरकं घोरं, लभते पारदारिकः ॥७॥ जो निर्लज्ज स्त्री अपने पति का परित्याग करके अन्य पुरुष का सेवन करती है, उस परस्त्री का क्या भरोसा है ? जिसने अपने पति के साथ छल किया है, वह परपुरुष के साथ छल नहीं करेगी, यह कैसे माना जा सकता है ?
पति एवं राजा आदि से भयभीत व्याकुल चित्त वाले तथा खंडहर आदि स्थानों में स्थित पुरुष को परस्त्री में रति करना योग्य नहीं। जैसे कत्लखाने के समीप पशु को आनन्द प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार
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