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परिग्रह की मर्यादा
द्वितीय प्रकाश
असन्तोषमविश्वासमारम्भं दुःखकारणम् । मत्वा मूर्च्छाफल कुर्यात्, परिग्रहनियन्त्रणम् ॥ १०६ ॥
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मूर्छा या श्रासक्ति का फल - असन्तोष, अविश्वास और प्रारम्भसमारम्भ है और यह दुःख का कारण है । अतः परिग्रह का नियंत्रण — परिमाण करना चाहिए ।
टिप्पण - ममता, मूर्च्छा या आसक्ति से घिरा हुआ मनुष्य कभी भी सन्तोष लाभ नहीं कर सकता । चाहे उसे कितना ही धन-वैभव क्यों न मिल जाए, फिर भी उसे अधिक धन पाने की लालसा बनी ही रहती है । इस लालसा के कारण प्राप्त सामग्री से वह सन्तुष्ट नहीं रहता, बल्कि प्राप्त की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है और दुःख का अनुभव करता रहता है ।
धन प्रादि का लोलुप व्यक्ति सदैव अविश्वसनीय होता है । जिनका विश्वास करना चाहिए, उनका भी विश्वास नहीं करता । प्रत्येक के प्रति शंकाशील रहने के कारण वह कभी चैन से नहीं रहता ।
मूर्छा - ग्रस्त मनुष्य हिंसा आदि पापों का आचरण करने में शंका नहीं करता । वह कोई भी बड़े से बड़ा पाप कर गुजरता है । तात्पर्य यह है कि परिग्रह की ममता का न तो कभी अन्त आता है, न उसके कारण प्राप्त परिग्रह से श्रानन्द ही उठाया जा सकता है, न सुख-चैन से जीवन यापन किया जा सकता है, बल्कि पापों में ही प्रवृत्ति होती है । श्रतः श्रावक को परिग्रह की मर्यादा कर लेनी चाहिए, जिससे ममता की भी सीमा निर्धारित हो जाए। ऐसा करने से जीवन सुखमय और सन्तोषमय बन जाता है ।
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परिग्रह महत्त्वाद्धि, मज्जत्येव भवाम्बुधौ । महापोत इव प्राणी, त्यजेत्तस्मात् परिग्रहम् ॥ १०७ ॥
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