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योग-शास्त्र
परिग्रहवान् की दुर्दशा
मुष्णन्ति विषयस्तेना, दहति स्मरपावकः ।
रुन्धन्ति वनिताव्याधाः, सङ्ग रङ्गीकृतं नरम् ॥ १११ ।। जैसे धन-धान्य, रजत-सुवर्ण आदि से युक्त व्यक्ति यदि अटवी में चला जाए तो चोर उसे लूट लेते हैं, उसी प्रकार संसार रूपी अटवी में इन्द्रियों के विषय मनुष्य के संयम रूपी धन को चुरा लेते हैं । अटवी में दावानल के लगने पर बहुत परिग्रह वाला मनुष्य भागकर बच नहीं सकतादावानल उसे जला देता है, उसी प्रकार संसार-अटवी में परिग्रही व्यक्ति को कामाग्नि जला देती है । जैसे परिग्रहवान् को व्याध वन में घेर लेते हैं, भागने नहीं देते, उसी प्रकार संसार-वन में परिग्रहवान् को विषयासक्त स्त्रिएँ घेर लेती हैं-उसकी स्वाधीनता को नष्ट कर देती हैं। परिग्रह से असन्तोष
तृप्तो न पुत्रः सगरः, कुचिकर्णो न गोधनैः । ___ न धान्यस्तिलकः श्रेष्ठी, न नन्दः कनकोत्करैः ।।११२॥
द्वितीय चक्रवर्ती सगर साठ हजार पुत्र पाकर भी सन्तोष न पा सका, कुचिकर्ण बहुत-से गोधन से तृप्ति का अनुभव न कर सका, तिलक श्रेष्ठी धान्य से तृप्त नहीं हुआ और नन्द नामक नृपति स्वर्ण के ढेरों से भी सन्तोष नहीं पा सका।
टिप्पण-ईंधन बढ़ाते जाने से अग्नि शांत नहीं होती, उसी प्रकार परिग्रह से मनुष्यों की तृप्ति नहीं होती। सगर चक्रवर्ती राजा था। उसकी राजधानी अयोध्या थी। उसके साठ हजार पुत्र थे, लेकिन दैवी कोप के कारण उसके सभी पुत्र मारे गए और अन्त में वैराग्य उत्पन्न हो जाने के कारण सगर ने भगवान अजितनाथ के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की और तब उसे वास्तविक संतोष और उसकी आत्मा को शांति प्राप्त हुई।
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