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योग-शास्त्र
' जैसे मर्यादा से अधिक धन-धान्य आदि से भरा हुआ जहाज समुद्र में डूब जाता है, उसी प्रकार परिग्रह की मर्यादा न होने के कारण प्राणी संसार रूपी सागर में डूब जाता है। महापरिग्रह नरक-गति का कारण है । अतः श्रावक को परिग्रह की मर्यादा अवश्य कर लेनी चाहिए । परिग्रह के दोष
त्रसरेणु-समोऽप्यत्र, न गुणः कोऽपि विद्यते ।
दोषास्तु पर्वतस्थूलाः, प्रादुष्षन्ति परिग्रहे ॥ १०८ ।। मकान की खिड़की में होकर सूर्य की धूप मकान में आती है। उस धूप में जो छोटे-छोटे उड़ते हुए कण दृष्टिगोचर होते हैं, वह त्रसरेणु कहलाते हैं । परिग्रह में एक त्रसरेणु के बराबर भी कोई गुण नहीं है, किन्तु जब दोषों का विचार करते हैं तो वे पर्वत के समान प्रतीत होते हैं । परिग्रह से राई के बराबर भी लाभ नहीं होता, किन्तु पहाड़ों के बराबर हानियाँ होती हैं।
सङगाद्भवन्त्यसन्तोऽपि, राग-द्वषादयो द्विषः। ___मुनेरपि चलेच्चेतो, यत्तेनान्दोलितात्मनः ।। १०६ ।।
जो राग-द्वेष आदि दोष उदय में नहीं होते, वे भी परिग्रह की बदौलत प्रकट हो जाते हैं। जन-साधारण की तो बात ही क्या है, परिग्रह के प्रलोभन से मुनियों का चित्त भी चलायमान हो जाता है।
टिप्पण -- पूर्व विवेचन में बतलाया गया था कि परिग्रह में पहाड़ के समान दोष हैं । उसी को यहाँ स्पष्ट करके बतलाया गया है कि परिग्रह दोषजनक है। समभाव में रमण करने वाले मुनि का मन भी परिग्रह के प्रभाव से चंचल हो जाता है और कभी-कभी इतना चंचल हो जाता है कि वह मुनि-पद से भी भ्रष्ट हो जाता है। इससे यह पूर्णतः स्पष्ट हो जाता है कि परिग्रह सब दोषों का जनक है। कहा भी है :-.
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