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योग शास्त्र मांस-लोलुपता की अभिलाषा को ही पूर्ण करते हैं। इसी अभिप्राय को व्यक्त करने के लिए यहाँ 'व्याज'-बहाना शब्द दो बार दिया गया है ।
शमशीलदयामूलं हित्वा, धर्म जगद्धितम् ।
अहो हिंसाऽपि धर्माय, जगदे मन्द-बुद्धिभिः ।। ४० ॥ . शम-कषायों और इन्द्रियों पर विजय और शील-दया और . प्राणियों की अनुकम्पा, यह सब जिसके मूल हैं और जो प्राणीमात्र का हितकारी है, ऐसे धर्म का परित्याग करके मन्द-बुद्धि जनों ने हिंसा को भी धर्म का साधन कहा है ! श्राद्ध की हिंसा परपक्ष का कथन
हविर्यच्चिररात्राय, यच्चानन्त्याय कल्पते ।
पितृभ्यो विधिवदत्त, तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः ।। ४१ ।। पितरों को विधिपूर्वक दी हुई हवि या दिया हुआ श्राद्ध-भोजन दीर्घकाल तक उनको ताप्ति प्रदान करता है और कोई अनन्तकाल तक तृप्ति देता है । वह सब मैं पूर्ण रूप से कहूंगा। .
तिलै-हियवषिरद्भिर्मू लफलेन वा।
दत्तेन मासं प्रोयन्ते, विधिवत्पितरो नृणाम् ।। ४२ ।। पितरों को विधिपूर्वक तिल, ब्रीहि, यव, उड़द, जल और मूल-फल देने से एक मास तक तृप्ति होती है। इन वस्तुओं से श्राद्ध किया जाय तो मृत पितर एक महीने तक तृप्त रहते हैं ।
द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन,त्रीन् मासान् हारिणेन तु ।
औरभ्रेणाथ चतुरः, शाकुने - नेह पञ्च तु ।। ४३ ॥ इसी प्रकार मत्स्य के मांस से दो मास तक, हिरण के मांस से तीन मास तक, मेढ़े के मांस से चार मास तक और पक्षियों के मांस से पाँच महीने तक पितरों की तृप्ति रहती है।
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