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द्वितीय प्रकाश षण्मासांश्छाग मांसेन, पार्षतेनेह सप्त वै। अष्टावेणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु ॥ ४४ ॥ दशमासांस्तु तृप्यन्ति, वराहमहिषामिषैः । शशकूर्मयोमा॑सेन, मासानेकादशैव तु ।। ४५ ।। संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन तु।
वाीणसस्य मांसेन, तृप्तिदश वार्षिकी ।। ४६ ॥ बकरे के मांस से छह माह तक, पृषत के मांस से सात मास तक, एण के मांस से आठ मास तक और रुह के मांस से नौ मास तक पितर तृप्त रहते हैं। यहाँ पृषत, एण और रुह मृगों की अलग-अलग जातियाँ हैं ।
वराह--जंगली शूकर एवं भंसा के मांस से दस मास तक और शशक तथा कछुवे के मांस से ग्यारह महीने तक पितर तृप्त रहते हैं । ___ गौ के दूध से, खीर से और बूढ़े बकरे के मांस से बारह वर्ष के लिए पितरों की तृप्ति हो जाती है।
टिप्पण–यहाँ ४१ से ४६ तक के श्लोकों में पितरों के निमित्त की जाने वाली हिंसा के प्ररूपक शास्त्रों का मत प्रदर्शित किया है । यह श्लोक भी उन्हीं शास्त्रों के हैं । यहाँ जो कुछ कहा है, वह स्पष्ट ही है । अब स्वयं शास्त्रकार इस मन्तव्य का खण्डन करते हैं।
इति स्मृत्यनुसारेण, पितणां तर्पणाय या। ... मूढैविधीयते हिंसा, साऽपि दुर्गतिहेतवे ।। ४७.।। . इस पूर्वोक्त स्मृति के अनुसार पितरों की तृप्ति के लिए, मूढ़ जनों के द्वारा की जाने वाली हिंसा भी नरक आदि दुर्गतियों का ही कारण है। तात्पर्य यह है कि भले ही हिंसा शास्त्र की आज्ञा के अनुसार की गई हो या उसका उद्देश्य पितरों का तर्पण करना हो, फिर भी वह पापं रूप ही है। उससे दुर्गति के अतिरिक्त सुगति प्राप्त नहीं हो सकती।
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