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द्वितीय प्रकाश हिंसा विघ्नाय जायेत, विघ्नशान्त्यै कृताऽपि हि।
कुलाचारधियाऽप्येषा, कृता कुलविनाशिनी ॥ २६ ॥ विघ्नों को शान्त करने के प्रयोजन से की हुई हिंसा भी विघ्नों को ही उत्पन्न करती है और कुल के प्राचार का पालन करने की बुद्धि से भी की हुई हिंसा-कुल का विनाश कर देती है।
अपि वंशक्रमायातां, यस्तु हिंसां परित्यजेत् ।
स श्रेष्ठः सुलस इव, कालसौकरिकात्मजः ॥ ३० ॥ जो मनुष्य वंश परम्परा से चली आ रही हिंसा का त्याग कर देता है, वह कालसौकरिक के पुत्र सुलस की भाँति अत्यन्त प्रशंसनीय होता है। - दमो देव - गुरूपास्तिनमध्ययनं तपः ।
सर्वमप्येतदफलं, हिसां चेन्न परित्यजेत् ॥ ३१ ॥ यदि कोई मनुष्य हिंसा का परित्याग नहीं करता है तो उसका इन्द्रिय-दमन, देवोपासना, गुरु-सेवा, दान, अध्ययन और तप-यह सब निष्फल है। ... हिंसा के उपदेशक - विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः, पात्यते नरकावनौ ।
अहो नृशंसर्लोभान्धैहिंसाशास्त्रोपदेशकैः ॥ ३२ ॥ खेद है कि हिंसामय शास्त्रों के दयाहीन उपदेश और मांसलोलुप उपदेशकों ने अपने ऊपर विश्वास रखने वाले मूढ़ लोगों को नरक के महागर्त में गिरा दिया।
'सारांश यह है कि भोले लोगों ने समझा कि यह शास्त्रकार हमें स्वर्ग-मोक्ष का मार्ग बतलाएँगे, परन्तु चे मांस के लोलुप थे और दया से विहीन थे। अतः उन्होंने अपने भक्तों को नरक का मार्ग दिखलाया।
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