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द्वितीय प्रकाश
५. मिथ्या दृष्टियों के साथ निरन्तर निवास करना, वार्त्तालाप करना, घनिष्ट परिचय करना 'मिथ्यादृष्टि - संस्तव' दोष है । ऐसा करने से, सम्यक्त्व के दूषित होने की संभावना रहती है, प्रतः यह 'सम्यक्त्व' का दोष है ।
पाँच अणुव्रत
विरति स्थूलहिंसादेद्विविधत्रिविधादिना । हिंसादीनि पञ्चाणुव्रतानि जगदुर्जिनाः ॥ १८ ॥
दो करण, तीन योग आदि से स्थूल हिंसा श्रादि दोषों के त्याग को जिनेन्द्र देव ने अहिंसा श्रादि पाँच श्ररणुव्रत कहे हैं ।
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टिप्पण - यहाँ हिंसा और अहिंसा के साथ जोड़े हुए आदि पद से यह समझना चाहिए कि स्थूल असत्य का त्याग करना 'सत्यारगुव्रत' है, स्थूल स्तेय का त्याग करना 'अचौर्यापुव्रत' है, स्थूल मैथुन का त्याग करना; अर्थात् पर- स्त्री और पर-पुरुष के साथ काम सेवन का त्याग करना 'ब्रह्मचर्याशुव्रत' है और परिग्रह की मर्यादा करना 'परिग्रह - परिमाण - अणुव्रत' है 1 "
मूल श्लोक में 'द्विविध - त्रिविध' के साथ जो 'आदि' पद लगाया गया है, उसका आशय यह है कि सभी गृहस्थ एक ही प्रकार से हिंसा आदि का त्याग नहीं करते, किन्तु अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार कोई किसी प्रकार से और कोई किसी प्रकार से त्याग करता है । द्विविध का अर्थ है-दो करण से श्रौर त्रिविध का अर्थ है तीन-योगों से ।
स्वयं करना, दूसरे से कराना और करने वाले का अनुमोदन करना, यह 'तीन करण' हैं । मन, वचन और काय, यह 'तीन योग' हैं । स्थूल हिंसा आदि को त्यागने के गृहस्थों के प्रकार प्रायः यह हैं१. दो करण - तीन योग से, २. दो करण दो योग से, ३. दो करण
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