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का विधान किया गया है । इस समिति का प्रतिपालन करने वाला मुनि
हिंसा से बच जाता है । ५. उत्सर्ग-समिति
प्रथम प्रकाश
कफमूत्रमलप्रायं, निर्जन्तुजगतीतले । यत्नाद्यदुत्सृजेत्साधुः, सोत्सर्गसमितिर्भवेत् ॥ ४० ॥
कफ, मूत्र, मल जैसी वस्तुनों का जीव-जन्तुनों से रहित पृथ्वी पर यतना के साथ मुनि त्याग करते हैं । यही 'उत्सर्ग-समिति' है । १. मन-गुप्ति
विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनस्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ॥ ४१ ॥
सब प्रकार की कल्पनाओं के जाल से मुक्त, पूरी तरह समभाव में स्थित और आत्मा में ही रमण करने वाला मन 'मनोगुप्ति' कहलाता है ।
टिप्पण - यहाँ मनोगुप्ति के तीन रूप प्ररूपित किये गये हैं१. प्रार्त्त - रौद्र ध्यानयुक्त कल्पनाओं का त्याग करना, २ . मध्यस्थभाव धारण करना, और ३. मनोयोग का सर्वथा निरोध करना ।
२. वचन- गुप्ति
संज्ञादिपरिहारेण,
यन्मौनस्यावलम्बनम् । वाग्वृत्तेः संवृतिर्वा या, सा वाग्गुप्तिरिहोच्यते ॥ ४२ ॥
संज्ञा आदि का त्याग करके सर्वथा मौन धारण कर लेना तथा भाषण सम्बन्धी व्यापार को संवरण करना 'वचन- गुप्ति' है । टिप्पण - मुख, नेत्र, भौंह आदि द्वारा किया जाने वाला या कंकर आदि फेंक कर किया जाने वाला इशारा भी न करते हुए मौन धारण करना भी 'वचन- गुप्ति' है और यतनापूर्वक सिद्धान्त से अविरुद्ध भाषण करना भी 'वचन -गुप्ति' है । इस प्रकार मौनावलम्बन तथा सम्यग् - भाषण, यह वचन - गुप्ति के दो रूप हैं ।
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