________________
प्रथम प्रकाश
२१
उसका पालन-पोषण करना और उसे साफ-स्वच्छ रखना माता का काम है। इसी प्रकार चारित्र का जनन, रक्षण और संशोधन करने के कारण समितियाँ और गुप्तियाँ-चारित्र रूप शरीर की माताएँ कहलाती हैं । इनके अभाव में प्रथम तो चारित्र की उत्पत्ति ही नहीं हो सकती, कदाचित् उत्पत्ति हो जाय तो उसकी रक्षा होना संभव नहीं है और फिर उसका विशुद्ध रहना तो सर्वथा असंभव ही है। इसी कारण इन्हें प्रवचनमाता भी कहते हैं । द्विविध चारित्र
सर्वात्मना यतीन्द्राणामेतच्चारित्रमीरितम् ।
यतिधर्मानुरक्तानां, देशतः स्यादगारिणाम् ।। ४६ ।। यहाँ तक जिस चारित्र का कथन किया गया है, वह मुनि-धर्म का पालन करने के इच्छुक मुनियों का सर्व चारित्र या सर्वविरति चारित्र है। इसी चारित्र का एक देश से पालन करना श्रावक-चारित्र या देश-चारित्र कहलाता है। मुनिजन चारित्र का पूर्ण रूप से पालन करते हैं और श्रावक एक देश से परिपालन करते हैं। __ टिप्पण-साधु का और श्रावक का चारित्र भिन्न-भिन्न नहीं है। दोनों के लिए चारित्र तो एक ही है, किन्तु उसके पालन करने की मात्रा अलग-अलग है। इस मात्रा-भेद का कारण उनकी योग्यता और परिस्थिति की भिन्नता है। गृहस्थ श्रावक में न ऐसी योग्यता होती है और न उसकी ऐसी परिस्थिति ही होती है कि वह पूर्ण रूप से चारित्र का पालन कर सके। इसी कारण अधिकारी भेद को लेकर चारित्र के दो भेद किये गये हैं। गृहस्थ-धर्म
न्यायसम्पन्नविभवः, शिष्टाचार प्रशंसकः । कुलशीलसमैः साद्ध, कृतोद्वाहोन्यगोत्रजैः ।। ४७ ।।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org