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योग-शास्त्र
कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः ।
ईषद्वाष्पाईयोभद्रं, श्री वीर जिननेत्रयोः ।। ३ ।। संगम देव जैसे अपराधी जन पर भी दयामय होने से जिनके नेत्रों के तारे झुक गये तथा हल्के से वाष्प से आर्द्र हो गए हैं, ऐसे श्री वीर भगवान् के दोनों कल्याणमय नेत्रों को नमस्कार हो ।
श्रुताम्भोधेरधिगम्य, सम्प्रदायाच्च सद्गुरोः।
स्वसंवेदनतश्चापि, योगशास्त्रं विरच्यते ॥ ४ ॥ श्रुत रूपी सागर से, गुरु की परम्परा से और स्वानुभव से ज्ञान प्राप्त करके योग-शास्त्र की रचना की जाती है। . योग की महिमा
योगः सर्वविपद्वल्ली-विताने परशुः शितः ।
अमूलमन्त्र-तन्त्रं च, कार्मणं निर्वृत्तिश्रियः ।। ५ ।। योग समस्त विपत्ति रूपी लताओं के वितान को काटने के लिए तीखी धार वाले परशु के समान है। मुक्ति रूपी लक्ष्मी को वश में करने के लिए विना मन्त्र-तन्त्र के कामण के समान है। अर्थात् योग के माहात्म्य से समस्त विपत्तियाँ नष्ट हो जाती हैं और मुक्ति रूपी लक्ष्मी - स्वयं ही वश में हो जाती है ।
भूयांसोऽपि पाप्मानः, प्रलयं यान्ति योगतः ।।
चण्डवाताद् घनघना, घनाघनघटा इव ।। ६ ।। - योग के प्रभाव से विपुलतर पाप भी उसी प्रकार विलीन-विनष्ट हो जाते हैं; जैसे-प्रचंड वायु के चलने से मेघों की सघन घटाएँ विलीन हो जाती हैं।
क्षिणोति योगः पापानि, चिरकालाजितान्यपि । प्रचितानि पथैधांसि, क्षणादेवाशुशुक्षणिः ॥ ७॥
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