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योग- शास्त्र
और स्पर्श का भी अनुभव करने लगता है । आशय यह है कि ऐसा योगी . किसी भी एक इन्द्रिय से सभी इन्द्रियों का काम ले सकता है ।
चारणाशीविषावधि - मनः पर्यायसम्पदः । योगकल्पद्रुमस्यैता, विकासिकुसुमश्रियः || ६ ||
चारण लब्धि, आशीविष लब्धि, अवधिज्ञान लब्धि और मनःपर्याय लब्ध; यह सब योग रूपी कल्प वृक्ष के खिले हुए पुष्प हैं । योग के निमित्त से ही यह सब लब्धियाँ प्राप्त होती हैं ।
टिप्पण - चारण लब्धि वाले योगी दो प्रकार के होते हैं— जंघा - चारण और विद्याचारण । जंघाचारण एक ही उडीन में रुचकवर द्वीप में पहुँच जाते हैं । लौटते समय रुचकवर द्वीप से एक उडान में नन्दीश्वर द्वीप तक आते हैं और दूसरी उडान में अपने स्थान पर प्रा पहुँचते हैं अगर जंघाचारण मुनि ऊपर जाने की इच्छा करें तो एक उडान में पाण्डुक वन पर पहुँच सकते हैं। लौटते समय एक उडान में नन्दन वन आते हैं और दूसरी उडान में अपने स्थान पर श्रा जाते हैं ।
विद्याचारण मुनि एक उडान में मानुषोत्तर पर्वत पर और दूसरी उडान में नन्दीश्वर द्वीप तक पहुँच जाते हैं । किन्तु लौटते समय एक ही उडान में अपने स्थान तक आ जाते हैं । विद्याचारणों की ऊर्ध्वगति भी तिछ गति के ही क्रम से समझनी चाहिए ।
जंघाचाण और विद्याचारण मुनियों के गमन - आगमन के सामर्थ्य पर ध्यान देने से ज्ञात होगा कि जंघाचारणों और विद्याचारणों के सामर्थ्य में परस्पर विरोध-सा है। जंघाचारणों का सामर्थ्य जाते समय धिक होता है और आते समय कम, किन्तु विद्याचारणों का जाते समय कम और आते समय अधिक होता है । इसका कारण यह है कि जंघाचारण लब्धि तप और संयम के निमित्त से प्राप्त होती है । लब्धि का प्रयोग करने से तप-संयम की उत्कृष्टता कम हो जाती है । इसी
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