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... योगशास्त्र
कितना सादा, सात्विक एवं निर्दोष होना चाहिए तथा प्राचार-निष्ठ . श्रावक के जीवन में कितना सन्तोष होना चाहिए। तृतीय-प्रकाश
तृतीय-प्रकाश के ११८ श्लोंकों में तीन गुणव्रत एवं चार शिक्षाव्रतों का वर्णन किया है और उनके भेद-प्रभेद एवं व्रतों की शुद्धि को बनाए रखने के लिए उसके दोषों का विस्तार से वर्णन किया है तथा बारह व्रतों के अतिचारों का भी उल्लेख किया है, जिससे साधक अतिचारों : का परित्याग करके निर्दोष व्रतों का परिपालन कर सके । इसके पश्चात् श्रावक के स्वरूप, उसकी दिनचर्या, साधना के स्वरूप एवं साधना के फल का वर्णन किया है। इस तरह द्वितीय एवं तृतीय प्रकाश के करीब २७० श्लोकों में गृहस्थ धर्म एवं साधना का सांगोपांग वर्णन किया है। चतुर्थ-प्रकाश
प्रस्तुत प्रकाश के प्रारंभ में रत्न-त्रय-सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र का आत्मा के साथ अभेद सम्बन्ध बताया है। द्वितीय श्लोक में इस प्रभेद सम्बन्ध का समर्थन करते हुए स्पष्ट शब्दों कहा मया है कि-"जो योगी अपनी आत्मा को, अपनी आत्मा के द्वारा अपनी प्रात्मा में जानता है, वही उसका चारित्र है, वही उसका ज्ञान है और वही उसका दर्शन है।" इस तरह आचार्य श्री ने साधना के लिए पात्म-ज्ञान के महत्व को स्वीकार किया है। ____ राग-द्वेष एवं कषायों की प्रबलता के कारण प्रात्मा अपने यथार्थ स्वरूप को जान नहीं पाता है। अतः कषायों के आवरण को अनावृत्त करने के लिए कषाय एवं राग-द्वेष के स्वरूप, राग-द्वेष की दुर्जयता एवं इन्द्रिय, कषाय तथा राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने के मार्ग का वर्णन किया है। राग-द्वेष का क्षय करने के लिए समभाव की साधना पावश्यक है और उसके लिए अनित्य आदि भावनाएं भी सहायक होती हैं । इसलिए
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