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जीवन-रेखा
ध्यान एवं जप में ही बीतता था और इसी कारण उन्हें अपना भविष्य भी स्पष्ट परिलक्षित होने लगा। आपने अपने महाप्रयाण के ६ महीने पूर्व ही अपने देह-त्याग के सम्बन्ध में बता दिया था। जब मेरी ज्येष्ठ गुरु बहिन परम श्रद्धेय महासती श्री झमकू कुँवर जी म० का संथारा चल रहा था, तब भी आपने सबके सामने कहा कि मेरा जीवन भी अब चार महीने का ही शेष रहा है। यह सुनते ही निहालचन्द जी मोदी ने कहा कि-"महाराज आप ऐसा क्यों फरमा रहे हैं ? अभी तो श्रद्धेय सतीजी म० चलने की तैयारी कर रही हैं। अभी हमें आपके मार्ग-दर्शन की आवश्यकता है ।" आपने अपने भविष्य की बात को दोहराते हुए दृढ़ स्वर में कहा कि-"पाप माने या न मानें, होगा ऐसा ही।" उसके डेढ़ महीने के बाद महासती श्री झमक कुंवर जी म० का स्वर्गवास हो गया। मेरा अध्ययन चल रहा था और ब्यावर संघ का आग्रह होने से हमने वहीं वर्षावास मान लिया। इससे पूज्य पिता श्री जी के दर्शनों एवं सेवा का लाभ मिलता रहा । परन्तु उनका अन्तिम समय भी निकट आ गया। स्वर्गवास के तीन दिन पूर्व भी आपने हमें सजग कर दिया कि अब मैं सिर्फ तीन दिन का ही मेहमान हूँ। परन्तु हमने इस बात पर विशेष ध्यान नहीं दिया।
परन्तु आप अपने कार्य में सजग थे। अतः आपने अपने जीवन की आलोचना करके शुद्धि की और सबसे क्षमित-क्षमापना की। स्वर्गवास के दिन करीब १२ बजे तक अपने भक्तों के घर जाकर उन्हें दर्शन देते रहे। सबसे शुद्ध हृदय से क्षमित क्षमापना करके हमारे स्थानक में भी दर्शन देने पधारे । जब मैंने उनसे कहा कि "आपके घुटनों में दर्द है, फिर आपने यहाँ आने का कष्ट क्यों किया।" तब आपने शान्त स्वर में कहा कि "जीवन में दर्द तो चलता ही रहता है। जब तक आत्मा के साथ शरीर है, तब तक वेदनाएँ तो लगी ही रहती हैं। और अपना सन्बन्ध
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