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जीवन-रेखा
कर रहे थे। परन्तु, अध्ययन के साथ सेवा भी बहुत करते थे। मुनि श्री जी ने दो वर्ष तक तन-मन से जो सेवा-सुश्रूषा की वह कभी भी विस्मृति के अंधेरे कोने में नहीं धकेली जा सकती। मुनिश्री का उनके साथ पिता-पुत्र-सा स्नेह संबंध था। वह दृश्य आज भी मेरी आँखों के सामने घूमता रहता है। दयालु हृदय
आप करीब १८ वर्ष ८ महीने श्रमण-साधना में संलग्न रहे। इस साधना काल में आपके जीवन में अनेक घटनाएँ घटित हुई, परन्तु आप सदा शान्तभाव से सहते रहे । आप में अपने कष्टों एवं दुःखों को सहने की हिम्मत थी। परन्तु, वे दूसरे का दुःख नहीं देख सकते थे । उनके अन्तर्मन में दया एवं करुणा का सागर ठाठे मारा करता था। स्वर्गवास के एक वर्ष पहले की बात है-आप एक दिन शौच के लिए बाहर पधारे और वहाँ चारे की कमी के कारण दुर्बल एवं भूखी गायों को देखकर आपका हृदय रो उठा और आँखों से अजस्र अश्रुधारा बह निकली। वे परवेदना को सहने में बहुत कमजोर थे। गायों की दयनीय स्थिति देखकर उन्होंने उस दिन से दूध-दही आदि का त्याग कर दिया ।
आपका जीवन सादा और सरल था । आप हमेशा सादगी से रहना पसन्द करते थे। आप यथासंभव अल्प से अल्प मूल्य के वस्त्र ग्रहण करते थे और वह भी मर्यादा से कम ही रखते थे। सदियों के दिनों में आप टाट प्रोढ़कर रात बिता देते थे। आसन के लिए तो आप टाट का ही उपयोग करते थे । आपकी आवश्यकताएँ भी बहुत सीमित थीं। समाधि-मरण -यह मैं ऊपर लिख चुकी हूँ कि वे अधिकतर ध्यान एवं जप-साधना में ही संलग्न रहते थे। रात के समय ३-४ घंटे निद्रा लेते थे, शेष समय
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