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जीवन-रेखा
से प्रभावित हुए। उन्होंने एक दिन मुनिजी को आहार के लिए निमंत्रण दिया। क्योंकि, वे जैन मुनियों के प्राचार-विचार से परिचित थे नहीं। उन्हें यह भी पता नहीं था कि जैन मुनि किसी का निमंत्रण स्वीकार नहीं करते और न अपने लिए तैयार किया गया विशेष भोजन ही स्वीकार करते हैं। अतः मुनि जी ने यही कहा कि यथासमय जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव होगा देखा जाएगा। परन्तु, भाग्य की बात है कि सन्त घूमते-घूमते उसी गली में आ पहुंचे और उनके घर में प्रविष्ट हो गए । जब आपके बड़े भाई ने मुनिजी को अपने घर में प्रविष्ट होते देखा तो उनका रोम-रोम हर्ष से विकसित हो उठा, उनका मन प्रसन्नता से नाच उठा। वे अपने प्रासन से उठे और सन्तों के सामने जा पहुंचे उन्हें भक्ति पूर्वक वन्दन किया। मुनि जी ने घर में प्रवेश किया और उनके चरण भोजनशाला- रसोई घर की ओर बढ़ने लगे। वहाँ पहुँचकर मुनि जी ने निर्दोष आहार ग्रहण किया और वहाँ से चल पड़े। परन्तु उनके वहाँ से चलते ही रसोई घर में केशर ही केशर बिखर गई। इस दृश्य को देखकर उनके मन में जैन-धर्म एवं जैन सन्तों के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई और सारा परिवार जैन बन गया।
उन दिनों मेरे पिताजी किशनगढ़ रहते थे। जब वे अपने बड़े भाई से मिलने को इन्दौर गए और वहाँ जाकर यह सुना कि इन्होंने जैनधर्म स्वीकार कर लिया है, तो उन्हें प्रावेश आ गया। और वे अपने बड़े भाई को बहुत-कुछ खरी-खोटी सुनाने लगे। परन्तु बड़े भाई शान्त स्वभाव के थे । उन्होंने उन्हें शान्त करने का प्रयत्न किया । उन्हें जैनधर्म एवं सन्तों की विशेषता का परिचय दिया। परन्तु, इससे उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। वे स्वयं चमत्कार देखना चाहते थे। अतः सन्तों के सम्पर्क में आते रहे और नवकार मंत्र की साधना करते रहे। उनके जीवन में यह एक विशेषता थी कि वे श्रद्धा में पक्के थे। उन्हें कोई भी व्यक्ति अपने पथ से, ध्येय से विचलित नहीं कर सकता था । वे जब
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