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जीवन रेखा
। देखते ही देखते सबके स्वजन-परिजन काल के गाल में समाने लगे और लोग अपने परिवार के साथियों का मोह त्यागकर अपने प्राण बचाने का प्रयन्त करने लगे। गांव खाली होने लगा, और घरों में लाशों के ढेर लगने लगे । उन्हें श्मशान भूमि तक ले जाकर दाह संस्कार करने वाले मिलने कठिन हो रहे थे। चारों तरफ त्राहि-त्राहि मच गई। मेरे पिताजी के परिवार के सदस्य भी महामारी की चपेट में आ गए थे और ८ दिन में परिवार के २३ सदस्य सदा के लिए इस लोक से विदा हो चुके थे । घर में सन्नाटा छाया हुआ था। चारों तरफ कुहराम मच रहा था। ऐसे विकट एवं दुखद समय में भी आपके धैर्य का बांध नहीं टूटा । प्राप दिन-रात जन-सेवा में लगे रहे लोगों के लिए दवा की व्यवस्था करना और जिस परिवार में मृत व्यक्ति को कोई कंधा देने वाला नहीं रहता, उस लाश को उठाकर उसे श्मशान में ले जाकर दाह-संस्कार कर देना। इस तरह आपने हृदय से बीमारों की सेवा की और साहस के साथ महामारी का सामना किया । ... प्लेग के कारण बहुत-से लोग मर गए और बहुत-से लोग अपने जीवन को बचाने के लिए गाँव छोड़कर जंगलों में चले गए और वहीं झोंपड़ियाँ बनाकर रहने लगे। परन्तु परिवार में सदस्यों की कमी हो जाने तथा बीमारी के कारण शक्ति क्षीण हो जाने से उनमें खेती करने की शक्ति कम रह गई और अर्थभाव भी उनके सामने मुंह फाड़े खड़ा था। अन्न की समस्या बिकट हो रही थी। लोगों को खाने के लिए रोटी नहीं मिल रही थी। लोग वृक्षों की छालें पीसकर उसकी रोटियाँ बनाकर खाते या झाड़ियों के बेर खाकर ही सन्तोष करते थे। अन्त में विवश होकर लोग अपने राजा के पास पहुंचे और उनसे सहायता माँगी। उस समय मेरे पिताजी राज-दरबार में कामदार थे। उन्होंने भी जनता का साथ दिया और राजा से अन्न-संकट को दूर करने का प्रयत्न करने की प्रार्थना की। किन्तु, जनता की प्रार्थना राजा के कर्ण कुहरों से
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