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एक परिशीलन
अधिकारी नहीं है । इस तरह योगदृष्टि समुच्चय में अष्टांग योग एवं योग तथा योगियों के वर्गीकरण में नवीनता है। योग-शतक
प्रस्तुत ग्रन्थ विषय निरूपण की दृष्टि से योग-बिन्दु के अधिक निकट है। योग-बिन्दु में वर्णित अनेक विचारों का योग-शतक में संक्षेप से वर्णन किया है । ग्रन्थ के प्रारंभ में योग का स्वरूप दो प्रकार का बताया हैं-१. निश्चय, मौर २. व्यवहार । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक चारित्र का प्रात्मा के साथ के सम्बन्ध को 'निश्चय योग' कहा है. और उक्त तीनों के कारणों-साधनों को 'व्यवहार योग' कहा है। योग-साधना के अधिकारी और अनधिकारी का वर्णन योग-बिन्दु की तरह किया है। चरमावर्त में प्रवृत्तमान योग अधिकारियों का वर्णन एवं अपुनर्बन्धक सम्यग्दृष्टि का वर्गीकरण योग-बिन्दु के समान ही किया है।
साधक जिस भूमिका पर स्थित है, उससे ऊपर की भूमिकाओं पर पहुंचने के लिए उसे क्या करना चाहिए ? इसके लिए योग-शतक में कुछ नियमों एवं साधनों का वर्णन किया है । प्राचार्य हरिभद्र ने बताया है कि साधक को साधना का विकास करने के लिए-१. अपने स्वभाव की पालोचना, लोक परम्परा के ज्ञान और शुद्ध योग के व्यापार से उचितअनुचित प्रवृत्ति का विवेक करना चाहिए, २. अपने से अधिक गुण सम्पन्न साधक के सहवास में रहना चाहिए, ३. संसार स्वरूप एवं राग-द्वेष मादि दोषों के चिन्तन रूप प्राभ्यन्तर साधन और भय, शोक आदि रूप अकुशल कर्म के निवारण के लिए गुरु, तप, जप जैसे बाह्य साधनों का माश्रय ग्रहण करना चाहिए । साधना की विकसित भूमिकाओं की मोर प्रवृत्तमान साधक को उक्त साधना का प्राश्रय लेना चाहिए। .. अभिनव साधक को पहले श्रुत पाठ, गुरु सेवा, पागम प्राशा, जैसे स्थूल साधन का प्राश्रय लेना चाहिए । और शास्त्र के अर्थ का यथार्थ
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