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समूलतः क्षय हो जाता है, केवल-ज्ञान, केवल-दर्शन की प्राप्ति होती है पौर क्रमशः चारों अघाति-कर्मों का क्षय होकर निर्वाण पद--मोक्ष की प्राप्ति होती है।
प्रात्मा भावों का विकास करके एवं उन्हें शुद्ध बनाते हुए चारित्र की तीन भूमिकाओं को पार करके चौथी समता साधना में प्रविष्ट होता है और वहाँ क्षपक श्रेणी करता है। उसके बाद वह वृत्ति-संक्षय की साधना करता है। प्राचार्य हरिभद्र ने प्रथम की चार भूमिकाओं का पातञ्जलि योग-सूत्र में वर्णित संप्रज्ञात समाधि के साथ और मन्तिम पांचवीं भूमिका का असंप्रज्ञात समाधि के साथ समानता बताई है। उपाध्याय यशोविजय जी ने भी अपनी योग-सूत्र वृत्ति में इस समानता को स्वीकार किया है।
आपने प्रस्तुत ग्रन्थ में पांच अनुष्ठानों का भी वर्णन किया है१. विष, २. गर, ३. अनुष्ठान, ४. तद्धतु, और ५. अमृत अनुष्ठान | इसमें प्रथम के .तीन असदनुष्ठान हैं। अन्तिम के दो अनुष्ठान सदनुष्ठान हैं और योग-साधना के अधिकारी ब्यक्ति को सदनुष्ठान ही होता है। २. योगदृष्टि-समुच्चय . प्रस्तुत ग्रन्थ में वर्णित प्राध्यात्मिक विकास का क्रम परिभाषा,
वर्गीकरण और शैली की अपेक्षा से योग-बिन्दु से अलग दिखाई देता है। . योग-बिन्दु में प्रयुक्त कुछ विचार इसमें शब्दान्तर से अभिव्यक्त किए गए हैं और कुछ विचार अभिनव भी हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में योग-बिन्दु में प्रयुक्त अचरमावर्ल काल-प्रज्ञान काल की अवस्था को 'पोष-दृष्टि' और चरमावर्त काल-ज्ञानकाल की अवस्था को 'योग-दृष्टि' कहा है। प्रोघ-दृष्टि में प्रवृत्तमान भवाभिनन्दी का वर्णन योग-बिन्दु के वर्णन-सा ही है।
इस अन्य में योग की भूमिकाओं या योग' के अधिकारियों को तीन
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