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एक परिशीलन के वाक्यों से उद्धरण देकर जैन-दर्शन के साथ तात्विक एक्य या समानता दिखाई है। .
योगावतार बत्तीसी में प्रापने मुख्यतया पातञ्जल योग-सूत्र में वर्णित योग-साधना का जैन प्रक्रिया के अनुसार विवेचन किया है। इसके अतिरिक्त उपाध्याय जी ने प्राचार्य हरिभद्र की योग-विशिका एवं षोडशक पर टीकाएँ लिखकर उनमें अन्तनिहित गूढ़ तत्त्वों का उद्घाटन किया है। वे इतना लिखकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने पातञ्जल योग-सूत्र पर भी जैन-सिद्धान्त के अनुसार एक छोटी-सी वृत्ति भी लिखी है। उसमें उन्होंने अनेक स्थानों पर सांख्य विचारधारा का जैन विचारधारा के साथ मिलान भी किया और कई स्थलों पर युक्ति एवं तर्क के साथ प्रतिवाद भी किया।
उपाध्याय यशोविजय जी के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उपाध्याय जी ने अपने वर्णन में मध्यस्थ भावना, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वय शक्ति एवं स्पष्टवादिता दिखाई है। अतः हम निस्संकोच भाव से यह कह सकते हैं कि उपाध्यायजी ने प्राचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि को पल्लवित, पुष्पित किया है, उसे आगे बढ़ाया है। योगसार ग्रन्थ .: इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर साहित्य में एक योगसार ग्रन्थ भी है। उसमें लेखक के नाम का उल्लेख नहीं है और यह भी उल्लेख नहीं मिलता है कि वह कब और कहां लिखा गया है। परन्तु उसके वर्णन, शैली एवं दृष्टान्तों का अवलोकन करने से ऐसा लगता है कि प्राचार्य हेमचन्द्र के योग-शास्त्र के आधार पर किसी श्वेताम्बर प्राचार्य . ने लिखा हो।
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