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-योग-शास्त्र
सकता है । अन्य श्वेताम्बर आचार्यों ने भी पञ्चम गुणस्थान में धर्म ध्यान को माना है । श्राचार्य हेमचन्द्र ने तो योग- शास्त्र का निर्माण राजा कुमारपाल के लिए ही किया था ।
उपाध्याय यशोविजय
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इसके पश्चात् उपाध्याय यशोविजय जी के योग-विषयक ग्रन्थों पर दृष्टि जाती है । उपाध्याय जी का श्रागम ज्ञान, चिन्तन-मनन, तर्क - कौशल और योगानुभव विस्तृत एवं गंभीर था । ज्ञान की विशालता के साथ उनकी दृष्टि भी विशाल एवं व्यापक थी । उनका हृदय सांप्रदायिक संकीर्णताओं से रहित था । वस्तुतः उपाध्याय जी केवल परंपराओंों के पुजारी नहीं, बल्कि सत्योपासक थे ।
उपाध्याय यशोविजय जी ने योग पर श्रध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् और सटीक बत्तीस बत्तीसियाँ लिखीं, जिनमें जैन मान्यताओं का स्पष्ट एवं रोचक वर्णन करने के अतिरिक्त अन्य दर्शनों के साथ जैन दर्शन की साम्यता का भी उल्लेख किया है। इसके अतिरिक्त गुजराती भाषी विचारकों के लिए आपने गुजराती भाषा में भी योगदृष्टि सज्झाय की रचना की ।
अध्यात्मसार ग्रन्थ में उपाध्याय जी ने योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रकरण में मुख्य रूप से गीता एवं पातञ्जल योग सूत्र का उपयोग करके जैन परंपरा में प्रसिद्ध ध्यान के अनेक भेदों का उभय ग्रन्थों के साथ समन्वय किया है । उपाध्याय जी का यह समन्वयात्मक वर्णन दृष्टि तथा विचार समन्वय के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण एवं उपयोगी है ।
श्राध्यात्मोपनिषद् ग्रन्थ में श्रापने शास्त्र - योग, ज्ञान-योग, क्रियायोग और सास्य-योग के सम्बन्ध में योगवासिष्ठ और तैत्तिरीय उपनिषद् १. संति एगेहि भिक्खुहि, गारस्था संजमुत्तरा ।
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-उतराध्ययन, ५, २०.
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