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जिसीम ध्यान में दोनों का अस्तित्व नहीं रहता है। जबकि जैन . परसस के द्वितीय ध्यान में वितर्क का सश्राव तो रहता है, परन्तु विनार का अस्तित्व नहीं रहता । मोर योग-सूत्र में सक्तिक संप्रज्ञात में बितकं, विचार, कानन्द और पस्मिता-इन चारों अंगों के अस्तित्व को स्वीकार किया है। और बौद्ध परम्परा प्रथम ध्यान में वितर्क, विचार प्रीति, सुख और एकाग्रता- इन पांचों के अस्तित्व को स्वीकार
करती है। योग-परम्परा द्वारा मान्य प्रानन्द या प्रहलाद और बौदः . परम्परा.द्वारा माने गए प्रीति और सुख में अत्यधिक-अर्थ-साम्य है।
और ऐसा प्रतीत होता है कि योग. परम्परा में प्रयुक्त 'अस्मिता' बौद्ध परम्परा द्वारा प्रयुक्त 'एकाग्रत' के उपेक्षा रूप में प्रयुक्त हुई है।
" योग-परम्परा में प्रयुक्त अध्यात्मप्रसाद और ऋतंभरा प्रज्ञा और सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाति में प्रायः अर्थ-साम्य दिखाई देता है। और जैनपरम्परा का समुच्छिन्न क्रिया-अप्रतिपाति योग-परम्परा का प्रसंप्रज्ञात योग या संस्कार शेष—निर्बीज योग है, ऐसा प्रतीत होता है।
उक्त परिशीलन से ऐसा प्रतीत होता है कि भारतीय-संस्कृति में प्रवहमान त्रि-योग परम्पराओं-वैदिक, जैन और बौद्ध में विभिन्न रूप में दिखाई देने वाली व्याख्यानों में बहुत गहरी अनुभव एकता रही हुई हैं । ये अलग-अलग दिखाई देने वाली कड़िएँ पूर्णतः पृथक् नहीं, प्रत्युत किसी अपेक्षा विशेष से एक-दूसरी कड़ी से प्राबद्ध-जुड़ी हुई भी हैं। योग के अन्य अंग
बौद्ध साहित्य में प्रार्य अष्टांग का वर्णन किया गया है । उसमें शील, समाधि और प्रज्ञा का उल्लेख मिलता है। शील का अर्थ है-कुशल धर्म को धारण करना, कर्तव्य में प्रवृत्त होना और अकर्तव्य से निवृत्त
बेलो, शार्य सूत्र (पं० सुखलाल संघवी), ६, ४१ ।
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