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एक परिशीलन ४१ अावश्यक 'द्रव्य-प्रावश्यक' कहलाता है । यही बात अन्य धर्म-साधना एवं ध्यान के लिए समझनी चाहिए।
जैनागमों में योग-साधना के लिए प्राणायाम आदि को अनावश्यक माना है । क्योंकि, इस प्रक्रिया से शरीर को कुछ देर के लिए साधा जा सकता है, रोग आदि का निवारण किया जा सकता है और काल-मृत्यु के समय का परिज्ञान किया जा सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रक्रिया से मुक्ति लाभ नहीं हो सकता । उसके लिए योगों को सहज भाव से केन्द्रित करना आवश्यक है और इसके लिए ध्यान-साधना उपयुक्त मानी गई है। इससे योगों में एकाग्रता पाती है, जिससे पानव का निरोध होता है, नए कर्मों का प्राममन रुकता है और पुरातन कर्म क्षय होते हैं। तब एक समय ऐसा आता है कि साधक समस्त कर्मों का क्षय करके, योगों का निरोध करके अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है, निर्वाण पद को पा लेता है। जैन योग-ग्रन्थ · यह हम ऊपर बता पाए हैं कि जैनागमों में योग के स्थान में 'ध्यान' शब्द प्रयुक्त हुआ है । कुछ प्रागम-ग्रन्थों में ध्यान के लक्षण, भेद, प्रभेद, मालम्बन प्रादि का विस्तृत वर्णन किया है।' आगम के बाद नियुक्ति का नम्बर प्राता है, उसमें भी पागम में वर्णित ध्यान का ही स्पष्टीकरण किया है। प्राचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान का वर्णन किया है, परन्तु उनका वर्णन आगम से भिन्न नहीं है । उन्होंने प्रागम एवं नियुक्ति में वणित विषय से अधिक कुछ नहीं कहा है। और १. स्थानांग सूत्र, ४, १, समवायांग सूत्र, ४; भगवती सूत्र, २५,७; - उत्तराध्ययन सूत्र, ३०, ३५ । २. .मावश्यक नियुक्ति, कायोत्सर्ग अध्ययन, १४६२-६६ ।। . ३. तत्याचे सूत्र, ९, २७ ।
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