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ॐ नमः सिभ्यः
भट्टारक सकलकीर्ति विरचित सिद्धान्तसार दीपक । अपर नाम-त्रिलोकसार दीपक ) सर्व प्रथम ग्रन्थ की प्रादि में भट्टारक सकलकीाचार्य मङ्गलाचरण करते हुये कहते हैं कि
श्रीमन्तं त्रिजगन्नाथं सर्वशं सर्वदशिनम् ।
सर्वयोगीन्द्रबन्धाघ्रि वन्दे विश्वार्थदीपकम् ॥१॥ अर्थ:- जो अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरङ्ग और अष्टप्रातिहार्यरूप बहिरंग लक्ष्मी से युक्त हैं, सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं, समस्त योगिराजों के द्वारा जिनके चरण बन्दनीय हैं तथा जो विश्व के पदार्थों को प्रकाशित करने के लिये दीपक हैं ऐसे तीन लोक के नाथ जिनेन्द्र भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ॥शा अब आदि जिनेन्द्र श्री ऋषभदेव का स्तवन करते हैं
विव्येन ध्वनिना पेन कालादौ धर्मवृत्तये । लोकालोकपदार्थोंघा विश्वत स्वादिभिः समम् ॥२॥ प्रोक्ता मार्यगणेशादीनग्न तं जिनेशिनाम् ।
विश्वार्य विश्वकर्तारं धर्मचक्राधिपं स्तुवे ॥३॥ अर्थ:-जिन्होंने युम के प्रारम्भ में ( तृतीयकाल के अन्त में ) धर्म की प्रवृत्ति चलाने के लिये दिव्यध्वनि के द्वारा आयंगराधरादिकों को समस्त तत्वों के साथ लोक अलोक के पदार्थ समूहका
१ गणेशिनाम् अ.