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लोकाशाह कौन थे
परित्याग कर मूर्तिपूजक समाज में दीक्षित हुए, और मूर्तिपूजा के उपदेशक बने, और अवशिष्ट साधुओं ने भी मूर्तिपूजा को शास्त्र सम्मत मान के अपने २ उपाश्रयों में मूर्तियों की स्थापना की और द्रव्य भाव से उनकी पूजा अर्चा प्रारंभ की, वह प्रवृत्ति आज कल भी लौकागच्छ में ज्यों की त्यों विद्यमान है। भेद है तो इतना ही कि खास मूर्तिपूजक समुदाय के प्राचार्य आदि जब नगर प्रवेश करते हैं, तब पहिले मन्दिर जाकर बाद में उपाश्रय जाते हैं। और लुङ्कागच्छ के श्रीपूज्य आदि आते हैं तो वे पहिले उपाश्रय जाकर फिर मन्दिर का दर्शन करते हैं। इस प्रत्यक्ष प्रमाण के लिए किसी दूसरे प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। लौंकागच्छ के श्रीपूज्य, यति और हजारों घर इस समय विद्यमान हैं पर वे सब मूर्तिपूजक हैं और मूर्ति पूजकों में ही उनकी गिनती की जाती है। ___ स्थानक मार्गियों की उत्पत्ति विक्रम की अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में लुङ्का गच्छ के यति वजरंग जी के शिष्य यति लवजी और यति शिवजी के शिष्य धर्मसिंहजी से हुई है। और लवजी के लिए लौकागच्छ की पटावलियों में बहुत कुछ लिखा है कि "लवजी उत्सूत्र प्ररूपक गुरु निंदक, मुँह पर मुँहपत्ती बाँध तीर्थङ्करों को आज्ञा भङ्ग कर कुलिंग धारण किए हुए हैं।" तथा धर्मसिंह जी के लिए तो यहां तक लिखा है किः
श्रीपाल जी आदि बहुत साधुओं ने आचार्य हेम विमल सूरि के पास भी जैन दीक्षा स्वीकार की। और पूज्य आनन्दजी स्वामि कई साधुओं के साथ आचार्य आनंद विमल सूरि के पास पुनः दीक्षा ग्रहण की थी।
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