Book Title: Shreeman Lonkashah
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Shri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi

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Page 399
________________ कडुआशाह पटावलि ३२४ 'जब कडुआ शाह ने साधुसंस्था का नास्तित्व बता, चतुर्विध संघ का द्विविध संघ कर डाला, तब लौंकाशाह को भाषादि तीन मनुष्य मिले । उन्होंने बिना गुरु साधु का वेश पहिन कर स्वयं को साधु घोषित किया । पर लौकाशाह ने जिस श्राचारशिथिलता के कारण नया मत निकाल शासन में भेद खड़ा किया था; उस शिथिलता ने उनके बाद ५०-६० वर्षों में उसके मत को भी धर दबाया और धर्मसिंह लवजी को जैनों का वेश बदल फिर नया मत निकालना पड़ा, और जब लवजी के साधुओं में भी शिथिलता का जोर बढ़ा, तब तेरह पन्थी भीखमजी को वेश बदल कर फिर से मत निकालना पड़ा। इस तरह असंयमी इन गृहस्थों के अनेक वार वेश बदलने और नये नये मत निकालने से जैन समाज को असह्य हानि उठानी पड़ी है, तथापि वीर शासन में जैन साधुओं का अस्तित्व अद्यावधि विद्यमान है और भविष्य में पाँचवें ओर के अन्ततक स्थायी रहेगा । लोकाशाह को तो बहुत लोग जानते हैं कि लौंकाशाह एक साधारण लहीया था और इसका अपमान होने से इसने एक नया मत निकाला | परन्तु कडुत्राशाह कौन था ? और इसने किस लिए नया मत निकाला, तथा इसके मत का मूल सिद्धान्त क्या था, यह बहुत कम लोग जानते हैं । विक्रम की १७वीं शताब्दी में श्रीधर्मसागरोपाध्याय नाम के प्रखर विद्वान् हुए हैं । उन्होंने "उत्सूत्र कंद कुद्दाल” नामक एक प्रन्थ लिखा है और उसमें जैसे लौंकाशाह को उत्सूत्र प्ररूपक बतलाया है वैसे ही कडुआशाह को भी उत्सूत्र वादी लिखा है । फिर भी कडु आशाह ने पंचांगी संयुक्त जैनागम एवं मन्दिर, मूर्ति तथा जैनों का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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