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श्री रत्नप्रभाकर ज्ञानपुष्पमाला पु० नं० १६९
श्री सिद्धसूरीश्वर सद्गुरुभ्यो नमः कडुआ-मत पटावली का सार कडुमाशाह एक अोसवाल, आँचलगच्छ का श्रावक था।
- इनका जन्म नाडोलाई ( मारवाड़ ) गाँव के शाह कहनजी की भार्या कनकादे की कुक्ष से वि० सं० १४९५ में हुआ था। आँचलगच्छ के यतियों के पास अभ्यास करने पर कडुआशाह को वैराग्य उत्पन्न हुआ, पर जब माता पिता से आज्ञा न मिली तो एक दिन घर से चुपचाप निकल वि० सं० १५२४ को अहमदाबाद चला गया। वहाँ रूपपुरा में श्रागमगच्छीय पं० हीरकीर्चिजी से समागम हुआ, और कडुआशाह ने कुछ दिन तक उनके पास रह कर ज्ञानाऽभ्यास किया। तब लोंकाशाह की भाँति इनकी बुद्धि में भी कुछ विकार पैदा हुआ, और जनता के समक्ष यह घोषणा की कि, इस समय कोई सच्चा साधु है ही नहीं, और न इस कलिकाल में शास्त्र प्रतिपादित कठिन साधु
आचार-व्यवहारों का पालन ही हो सकता है, अतः दीक्षा की भावना रखते हुए "संवरी श्रावकपना" पालनो ही अच्छा है । तथा इसी बात पर स्वयं कडुआशाह ने भी बालब्रह्मचर्य, अकाश्चनत्व एवं श्रममत्व को धारण कर गाँव गाँव में परिभ्रमण करना शुरू किया और निम्न लिखित बोलों की मर्यादा स्थिर की। जैसे:१-मन्दिर में पगड़ी उतार कर देव-वन्दन करना है।
® यह नियम उसने 'संबरी श्रावक' के लिए बनाया होगा कि साधारण श्रावक से संबरी श्रावक की इतनी विशेषताहो।
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