Book Title: Shreeman Lonkashah
Author(s): Gyansundar Maharaj
Publisher: Shri Ratna Prabhakar Gyan Pushpmala Phalodhi

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Page 410
________________ कडुआमत नियमावलि .. कडुअाशाह के मत की नियमावली पढ़ कर यह तो कहा जा सकता है कि लोकाशाह की अपेक्षा कडाशाह का मत बहुत उत्कृष्ट था, यदि कडुअाशाह साधु संख्या का इनकार नहीं करता तो श्रावक धर्म के लिए कडुअाशाह के नियम बड़ी उच्च कोटि के हैं। कडुआशाह ने वि० सं० १५२४ में अपना मत स्थापित किया और ४० वर्ष तक भ्रमण कर अपने मत को खूब बढ़ाया उस समय कडुअाशाह के मत ने जनता पर जितना प्रभाव डाला था उतना लौकाशाह के मत ने नहीं। कारण कडुभाशाह के मत में एक साधुओं के सिवाय सब कुछ मान्य था परन्तु लौंकाशाह तो, देव गुरु धर्म मंदिर, मर्ति, सामायिक, पौषध, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान और सूत्र सिद्धान्त कुछ भी नहीं मानता था, केवल पाप पाप, हिंसा-हिंसा, दया-दया यही करता था। इसी से तो कडुआशाह के बजाय लौंकाशाह का अधिक तिरस्कार हुआ और जैन समाज उसे घृणा की दृष्टि से देखने लगा। कडुअाशाह ने वि. सं. १५६४ में अन्तिम चौमासा पाटण शहर में किया और अपने पीछे पाट पर शाह खेमा को लिखी हुई यह कडुआमत की पटावली है और इसमें स्पष्ट लिखा है कि कदुभाशाह ने वि० सं० १५२४ में अपना मत स्थापन किया और वे सरूआत से ही 'संवरी श्रावक' नोम का मत स्थापन किया है पर हमारे स्था० साधुओं को अपने लेख की सत्यता के लिये प्रमाण की तो परवाह ही नहीं है जिसके दिक में आई वह ही कल्पना कर लिख मारता है फिर सभ्य समाज उनकी प्रशंसा करे या मज़ाक उड़ावे, यह विचार इन लोगों को होता ही नहीं है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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