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प्रकरण बीसवा
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और इन लोगों ने लिख दिया कि लोकाशाह ने तो अपना धर्म भारत के चारों ओर फैला दिया। ___ बस ! गुरु भक्ति इसी का ही नाम है,चाहे प्रमाण हो या न हो, लोग चाहें इसे माने या इसकी मजाक उड़ाएँ पर भक्त लोगों ने तो अपना कर्तव्य अदा कर ही दिया। खैर ! जाने दो, इन भक्तों के तो तमाम लेखों से यही ध्वनि निकलती है कि लौकाशाह ने लाखों चैत्यवासियों को दयाधर्मी बनाया । इससे यह तो निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि लौकाशाह ने चैत्यवासी स्वधर्मी जैनों को तो जरूर स्वधर्मच्युत किया, परन्तु जैनेतर, अन्य धर्मी २-४ मनुष्यों को जैनधर्म का उपदेश दे अपना अनुयायी नहीं बनाया। कारण लौकाशाह में यह योग्यता थी ही नहीं, जो पूर्वाचार्यों में सामूहिक रूप से विद्यमान थी। क्योंकि उन्होंने तो उपदेश दे देकर लाखों करोड़ों अजैनों को नया जैन बनाया था। और लौकाशाह ने जो कुछ सदसत् कार्य किया वह यह कि निज के रक्षित घर में एक विशाल सुरंग रूपी फूट डाल अपना एक नया फिरका अलग खड़ा किया। यह कुप्रवृत्ति तब से आज तक भी पूर्ववत् विद्यमान है । उदाहरणार्थ:लौकाशाह के समकालीन कडुअाशाह ने भी लौंका की भांति कुछ लोगों को फाँट कर कह दिया कि भस्मग्रह के उतरने पर कडुअाशाह ने धर्म का उद्योत किया । इसके अनन्तर लौंकाऽनुयायी यति धर्मसिंहजी और लवजी ने लौकामत में भी फूट डाल कुछ लोगों को अपने उपासक बना दिये, और साथ ही घोषणा की कि लवजी ने हजारों लाखों अपने अनुयायी बना लिए । सत्पश्चात् स्वामी भीखमजी ने भी इसी प्रकार भेद डाल कर धर्म
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