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प्रकरण बावीसा
१७२ - संभव है स्थानकमार्गियों का यह विचार हो कि लौंकागच्छ के यति, श्री पूज्य, और श्रावक लोग मुँह पर डोराडाल मुँहपत्ती नहीं बाँधते हैं, और जैन मन्दिर मूर्तियों को मान कर पूजन, वन्दन करते हैं. अतः इनका विरोध कर इनकी इस मान्यता को बदल कर अपने में मिला लें। परन्तु अब लौकागच्छीय यति श्रीपूज्य और उनके श्रावक वर्ग इतने भोले नहीं कि लौकाशाह के सिद्धान्त और आचार व्यवहार के विरुद्ध, मत स्थापन करने वालों के फन्दे में फँस कर शास्त्र सम्मत मूर्तिपूजा को करना छोड़ दें। और शास्त्र विरुद्ध डोराडाल कर दिन भर मुंहपर मुँहपती बाँध कर एक नयी श्रापद् मोल लें ? कदापि नहीं।
अब हम हमारे पाठकों को यह बतला देना चाहते हैं कि लौकाशाह की मान्यता एवं आचरण में, और स्थानकमार्गियों की मान्यता और आचरण में क्या भेद हैं।
(१) लौकाशाह के अनुयायियों की शुरु से आज पर्यन्त मान्यता मूल ३२ सूत्र तथा उन पर किये हुए पार्श्वचंद्रसूरि के टम्बे पर हैं और स्थानकमागियों ने पार्श्वचंद्र सूरि के टब्बे में बहुत फेर फार किये हैं तो एक मान्यता कैसे समझी जा सके ।
(२) लौंकाशाह के अनुयायियों की ३२ श्रागमों के आधार से मान्यता है कि जैनमन्दिर मूर्तियों की द्रव्य भाव से पूजा करना कल्याण का कारण है और बहुत से लौकागच्छ के आचार्यों ने मन्दिर मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई, और उनके उपाश्रय में आज भी देरासर और मूर्तियां स्थापित हैं। किन्तु स्थानकमार्गी लोग मूर्तिपूजा को कतई स्वीकार नहीं करते हैं।
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