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'हिंसा धर्म दयाइ धर्म, कुमती पूछइ न लहइ मर्म, श्रावक सहूई पाणी गलइ, धर्म भणी किम हिंसा टलइ? ॥९॥ नदी ऊतरवी जिणवरि कही, कहउ तुम्हि हिंसा तिहा किम नही, करिइ कराविइ सरीखडं पाप, बोलई वीतराग जगबाप ॥ १० घोडे हाथी बइठा जाई, जिणवर वंदणि धसमस थाई, कहउ तेहनई किम न हुइ धर्म, कांई ऊथापी बांधउ कर्म।११॥ एवं कारइ कउं केतलडं, ताणउ भाइउ तुम्हि एतलडं, जिनशामननउ एहजि मर्म, वीतरागनी आज्ञा धर्म ॥१२॥ एणि उपदेसि दृहवाइ जेउ, पाग लागी खमावउं तेउ, जीव सविहुस्यू मैत्रीकार, जिनशासननउं एहजि सार ।। १३
—इति चउपइ समाप्त (छ) *
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___ * इसकी पुराणी प्रति पाटण ज्ञानभंडार में तथा श्रीमान् फूलचंदजी झाबक फलोदी वालो के पास है । ईन चौपाइ के अलावा लौंकाशाह का पूर्वोक्त उत्सूत्र प्रवृतिका खण्डन के लिये बहुत
आगमों के पाठ भी दिये हुए हैं। इससे सिद्ध होता है कि लौकाशाह सामायिक, पौसह, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, दान, देवपूजा, साधु और शास्त्रों को नही मानता था ।
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