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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता
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अब रही तीसरे सुधारक धर्मदासजी - पाठक जरा इनका विवेचन भी पढ़लें - "ये सरखज के छींपा ( भावसार ) थे । ये पहिले एक पातरिये श्रावक से मिले। बाद में धर्मसिंह लवजी से भुलाकात की, परन्तु आपको इन दोनों यतियों से भी सन्तोष नहीं हुआ । सन्तोष नहीं होने के कारण आज तक भी किसी ने नहीं बताया कि इन दोनों पूर्व धर्म गुरुओं में ऐसी क्या त्रुटियें थी जिनसे धर्मदासजी को संतोष नहीं हुआ । हां, श्रीमान ने इस विषय में इतना जरूर लिखा है कि:“पहिले दोनों मुनियों में या तो पूर्ण शुद्धता मालूम नहीं हुई होगी, या अपना अलग ही समुदाय कायम कर ज्यादा नाम हासिल करने की इच्छा हुई होगी। इन दोनों में से कोई भी कारण क्यों न हो पर इससे हमें शर्म आती है ।"
शाह
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ऐ० नो० पृ० १४१
वाके ही यह शर्म की बात है 'कि सुधारकों की यह मनो-दशा, यह अभिमान वृत्ति ऐसी महत्त्वाकाँक्षा, इससे अधिक फिर शर्म की बात ही क्या हो सकती है कि जिन दोनों सुधारकों को अपनी अलग दुकान जमाए कुछ अर्सा भी नहीं हुआ, और वे धर्मदासजी को अयोग्य लगने लग गए, अर्थात् उनकी मान्यता से धर्मदासजी को संतोष नहीं हुआ यही तो दुर्भाग्य की बात है । शायद, धर्मसिंहजी की आठ कोटि की मान्यता और लवजी की उच्छृंखलता आदि कारणों से इन दोनों को
* यह कडुआ मत के संबरी धावक थे ।
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