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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता हो ?-हो न हो किसी कटु कारण से ही स्वामीजी ने इस घटना के लिखने से कन्नी काटी है ।
समझ में नहीं आता कि वा० मो० शाह अपने साधुओं का कलंक यतिवर्ग पर डाल कर हूँढिये साधुओं की क्या उन्नति करना चाहते हैं ?। अब जरा संक्षेप में यह भी देखलें कि शाहने यतियों पर यह व्यर्थ ही आक्षेप किया और यह तनिक भी विचार नहीं किया कि वे यति किस समुदाय के थे ? क्योंकि उस समय जैनयतियों के और ढूंढिया साधुओं के तो आपस में इतना बढा हुआ वैमनस्य था ही नहीं; जो वे अकारण किसी साधु के प्राण हरण कर लेते । जरूर लोंकागच्छोय यति, और उनकी निंदा कर नया मत चलाने वाले ढूंढियों में उस समय भीषण संघर्ष चल रहा था; और इसी कारण से लवजी के नाना ने खंभात के नवाब के नाम पत्र लिखा था कि “लवजी अपने गुरु की निंदा कर रहा है उसको गाँव से निकाल देना" अतएव साधु को मार डालने का यह मिथ्या कलंक यदि लौकागच्छ के यतियों पर लगाया हो तो संभव हो सकता है। क्योंकि खुद शाह का द्वेष भी विशेष रूपेण लौकागच्छ के साथ ही प्रगट होता है जो उनको चतुर्विध श्रीसंघ से अलग निकाल कर उनके लिए स्वतंत्र आधे आसन की निन्दामयी कल्पना की है। परन्तु झूठ मूठ ऐसा करना भी सरासर अन्याय ही है। क्योंकि यदि साधु के मारने का यह कलंक प्रधान जैनयतियों से हटा कर लौंकागच्छ के यतियों पर डाला जाता है तो भी जैनधर्म का तो इस में बुरा ही है कारण वे भी जैन और दूँढियों के गुरु ( बाप) ही हैं। यदि कोई अन्यधर्मी आकर पूछे कि आपने नोंध में जो जैनों
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