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स्था० साधुका जैनमन्दिर में
पाप से डरने वाले, एवं रजोहरण से कीड़ी मकोड़ी की “यत्ना" करने वाले लोग अकारण एक ढूँढिये साधु को मन्दिर में ले जाकर तलवार से काट, उसे वहीं समाधिस्थ करदें और उसकी बू तक बाहिर न फैले यह नितान्त असंभव प्रतीत होती है । किन्तु दूसरी घटना जिसमें मुसलमान ने अपनी औरत की बेइज्जती होती देखी हो, और उसने अपनी जन्मजात सुरता के कारण साधु को मार डाला हो ? तो संभव हो सकती है । क्योंकि एक तो मुस्मिल कौम निर्दय, दुसरा उसके खुद के घर में उसी की औरत की ढूँढिये साधु द्वारा बेइज्जती, तीसरा तत्कालीन मुसलमानों की सार्वभौम पैशाचिक प्रभुता, चौथा ढूँढिये साधुत्रों से स्वाभाविक घृणा इत्यादि कारणों के एकत्रित हो जाने से इस घटना का उक्त रूप में घटित होना विशेष असम्भव नहीं जँचता । कारण कर्मगति विचित्र है । जीव को स्वकृताऽकृत भोगने ही पड़ते हैं यह प्रकृति का खास नियम है और बाद में इसी कारण से शायद लवजी ने दया पाली हो तथा शान्ति रक्खी हो तो श्रचर्य नहीं ।
स्वामी मणिलालजी ने अपनी "प्रभुवीर पटावली" नामक पुस्तक में स्वामी लवजी का जीवन लिखा है, परन्तु साधु के मारे जाने की घटना का कहीं संकेत तक भी नहीं किया है। ऐसी दशा में वा० मो० शाह का पूर्वोक्त लेख हम कैसे सत्य मान सकते हैं । हाँ, यदि स्वामीजी को दोनों पटावलीकारों के उद्धरण का पता पड़ गया हो, और ढूँढिये माधु समाज की बदनामी के भय से इस प्रसंग को कतई उड़ा दिया हो तो बात दूसरी है । अथवा शाह को उक्त निजी पटावली स्वामीजी को कल्पित जँची
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