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( ३१३ ) कई प्रमाण दे आये हैं और अधुना हमारे पूज्य हुकमीचंदजी महाराज पूज्य श्रीलालजी महाराज जावदवाले शोभालालजी तथा अन्य भी ऐसे बहुत से उदाहरण हैं कि वे बिना गुरु दीक्षित बन जाते हैं किंतु प्रधान जैनियों में तो बड़े से बड़ा गृहस्थ विद्वान या उच्च से उच्च ब्राह्मण और साधु वेशधारी स्थानकवासी तेरहपन्थी भी क्यों न हो पर वह गुरु महाराज की अनुमति से ही दीक्षा ले सकता है स्वतंत्र रूप से नहीं ओर ऐसा होने पर हो वह साधू माना जाता है । देखिये शास्त्रों में:
"शिवराज ऋषि, पोगल संन्यासी, खंदकसंन्यासी, अंबडपरिव्राजक आदि यद्यपि अन्यान्य मतों के महान् नेता थे तथा महात्मागौतम आदि ब्राह्मण थे किंतु इन्हें भी यथाविधि गुरु से ही दीक्षा लेनी पड़ी थो" ।
(१) लौकागच्छ के पूज्यमेघजी ५०० साधूओं के साथ लौंकामत को त्याग, जैनाचार्य विजयहीरसूरिजी के पास आए, किन्तु इन्हें भी पुन: जैन दीक्षा लेकर ही जैन साधुओं में शामिल होना पड़ा।
(२) लौंकागच्छ के पूज्य श्रीपालजी ४७ शिष्यों के साथ जैनाचार्य हेमविमलमूरिजी के पास आए तो उनको पुनः दीक्षा दीगई थी।
(३) लौंकागच्छीय पूज्यपानंदजी आदि ७८ साधू आचार्य 'प्रानन्दविमलसूरि के पास आकर पुनः दीक्षित हुए थे।
(४) स्वामी बुटेरायजी स्थानकवासी समुदाय को त्याग कर संवेगपक्षी समुदाय में आये तो गणि श्रीमणिविजयजी महाराज ने उन्हें पुनः दीक्षा दी।
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