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( ३१२ ) को छोड़कर, बिना गुरु स्वयं साधु बन, अनन्ततीर्थङ्करों और खास लौकामत की प्ररूपणा को परित्याग, अपनी मनोकल्पना से ही श्रावक के लिए पाठकोटि के सामायिक की बिलकुल नयी शास्त्र विरुद्ध प्ररूपणा की।
(५) स्वामी लवजी ने वि० सं० १७०८ में अपने गुरु बजरंगजी को शिथिलाचारी भ्रष्टाचारी आदि कह कर आप बिना गुरु के ही साधु बन तीर्थङ्कर, गणधर और, खास लौंकामत की आज्ञा का उल्लंघन कर डोराडाल दिन भर मुँहपर मुँहपत्ती बाँधने वाला एक नया मत प्रचलित किया।
(६) धर्मदासजी वि० सं० १७३६ में गृहस्थ होते हुए भी उस समय जैनयति, लौंकायति, धर्मसिंह यति, और लवजीयति श्रादि सब को धता बताकर स्वयं बिना गुरु स्वतन्त्र साधु बन गए ।
(७) स्वामी हरदासजी भी अपने गुरु को छोड़ स्वयं साधु बन गए।
(८) यति गिरधरजी भी इसी भांति बिना गुरु के साधु बन गये थे।
(९) तथा यह कुप्रवृति आज पर्यन्त भी इन लोगों में विद्यमान है । जैसे अन्याऽन्य यतियों में जिस किसी गृहस्थ का कुछ अपमान हुआ यह पुजाने की भावना के वशीभूत होने पर बिना गुरु ही साधु वेश के वस्त्र धारण कर साधु बन जाता है, इस प्रकार खास जैनधर्म में साधु नहीं हो पाता है, प्रधान जैनधर्म में तो गुरु से विधि विधान होने पर ही दीक्षा दी जाती है किंतु नौकामत और स्थानकवासियों में तो पूर्वोक्त प्रकार से जिसके मन आई वह स्वयं वेश पहिन साधू बन जाता है । उदाहरणार्थः-ऊपर
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