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पंजाब की पटावलि
से जैनाचार्यों ने जैनसमाज पर महान उपकार किया', और यह प्रवृत्ति लोकाशाह के समय तक तो अविच्छिन्न धारा प्रवाह चली आई थी । इन २००० वर्षों में किसी ने भी इस प्रवृत्ति का विरोध नहीं किया | इस हालत में इस उपर्युक्त मान्यता से विरुद्ध विचार रखेने वाली ये दोनों कल्पित पटावलियें कुछ भी महत्व शेष नहीं रख सकती हैं ?
( २ ) ऐतिहासिक दृष्टि से ये पटावलियें चिलकुल कति सिद्ध होती हैं । कारण इन पटोवलियों में जो नाम हैं उनमें से यदि जैन पटावलियों से लिए गए नामों को अलग रख शेष नामों के लिए इतिहास टटोलाजाय, तो उनके लिए इतिहास में कहीं गंध तक भी नहीं मिलती । और न स्वयं पटावल्ली कार आज तक इन नामों के लिए कोई प्रमाण दे सके हैं । इस दशा में इनकी सत्यता पर स्वयं सन्देह हो जाता है ।
( ३ ) खण्डन मण्डन की दृष्टि से यदि इन पर विचार किया जाय तो प्रभु महावीर के बाद २००० वर्षों के साहित्य में मूर्त्तिमानने और न मानने का वादाविवाद कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं होता है । केवल जैन श्वेताम्बर और दिगम्बरों के, जैन और वेदान्तियों के, जैन और बौद्धों के तथा अनेक गच्छ गच्छान्तर एवं मत मतान्तरों के आपसी वादविवाद का ही वर्णन यत्र तत्र नजर आता है । किन्तु इन पंजाब आदि की पटावलियों में यह
१ देखो प्रभुवीर पटावली पृष्ठ १३१ ।
स्वामी सन्तबालजी तो वीरात् ८४ वर्षो में ही मूर्तिपूजा के अस्तित्व का डिण्डिम घोष करते हैं फिर ये पटावलियें किस मर्ज की दवा है ? कुछ समझ नहीं पड़ती है ।
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