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पंजाब की पटावलि
का जन्म मात्र भी हुआ होता तो उसके समय का एकाध पुस्तक आज मूर्ति विरोध में लिखी हुई भी जरूर मिलती, परन्तु इसका सर्वथा अभाव ही है । मान लें कि मूर्तिपूजक समुदाय के अधिक आचार्य पूर्वधर थे इसमें उन्होंने साहित्य संसार में अपनी प्रतिभा को पूर्णतया चमत्कृत कर दिया, किन्तु यदि मूर्ति विरोधी वर्ग उस समय हो तो उसके सबके सब आचार्य तो मूर्ख होंगे ही नहीं जो उस समय चोर सी चुपकी लगा बैठ गए।
वस्तुतः उपर्युक्त इन कारणों से ही निष्कर्ष निकलता है कि लौकाशाह के पूर्व जैन जगत् में ऐसी एक भी व्यक्ति नहीं थी जो मूर्तिपूजा मानने से विरोध करती हो, क्योंकि यह प्रमाणाभाव से स्वतः परिम्फुट हो जाती है, ऐसी हालत में पंजाब की पटावली जैसी कल्पित पटावलिये बनाने से वे सिवाय सभ्य समुदाय को हंसाने के दुसरा क्या स्वार्थ सिद्ध कर सकते हैं, कुछ समझ में नहीं आता । यदि कुछ काल के लिए अन्तःसार विहीन हृदय वाले मनुष्य और औरतें ऐसी निःसार बातों को मान भी लें तो क्या हुआ पर अन्त तो गत्वा प्रमाणाऽभाव से ये बात चिर समय के लिए तो नहीं टिक सकती। ___ यद्यपि इन सब प्रश्नों को हल करने के लिए स्था० स्वामी मणिलालजी ने अपनी प्रभुवीर पटावलि में लौकाशाह को यति सुमति विजय के पास दीक्षा दिलवादी है और इससे गृहस्थ गुरु को मानने के आक्षेप का निराकरण कर दिया। अब न लौकाशाह के पूर्व किन्हीं भी प्राचार्यों के ऐतिहासिक प्रमाणों की आवश्यकता रही और न धर्म स्थापक गृहस्थ गुरु का आक्षेप हो रहा है किन्तु श्री. संतबालजी इस बात को कतई स्वीकार नहीं करते
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