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मूर्तिपूजा की ढूँढिये हुए
गच्छ बाहिर कर देना ही धर्मदासजी का असंतोष हो तो बात बन सकती है । धर्मदासजी के समय जैन समाज विशालसंख्या में था । लौकागच्छ के यति श्रीपूज्यजी भी बहुत थे। धर्मसिंहजी लवजी आदि नये सुधारक भी विद्यमान थे। इतने पर भी फिर धर्मदासजी ने बिना गुरु के साधु वेश पहिन लिया तो इसका कारण क्या हो सकता है, यह समझ में नहीं श्रता । इन लोगों के लिए साधुवेश पहिन कर साधु बन जाना तो एकबच्चों का खेल सा हो गया है । इसी लिए तो श्रीमान् शाहने जलते हृदय यह पुकार निकाली है देखियेः
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" स्थानकवासी, साधुमार्गी जैन धर्म का जब से पुनर्जन्म हुआ, जब से यह धर्म अस्तित्व में आया, तब से आजतक भी यह जोर-शोर में था ही नहीं । अरे ! इसके कुछ नियम भी नहीं थे । यतियों से अलग हुए और मूर्ति पूजा छोड़ी कि
१ धर्मदासजी की मृत्यु के लिए स्वामी मणिलालजी अपनी "प्रभुवीर पटावली" नामक पुस्तक के पृष्ट २१९ पर लिखते हैं कि एक. साधुने रतलाम में संथारा कियाथा बाद में वह क्षुधाका सहन नहीं कर सका, आखिर उसने स्पष्ट शब्दों में कह दिया कि हम को रोटी खिलाओ अन्यथा मैं रात्रि में भाग जाऊँगा, यह खबर धर्मदास जी को मिली । धर्मदास जी ने साधु ' के बदले अपना अकाल बलिदान किया । यह संधारा करने वाले करवाने वाले और बीच में पड़ कर आप बलिदान होने वालों की बड़ी भारी अज्ञानता है । जैन धर्म में बिना अतिशय ज्ञान के संधारा करने करवाने की सख्त मनाई है । परन्तु जैन हैं कौन ? जैनाज्ञा विरुद्ध आचरण करने वालों की तो यही दशा होती है ।
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