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ऐति० नांध की ऐतिहासिकता
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नयी कल्पना कर डाली जो आज पर्यन्त भी सिवाय शाह के किसी तीथङ्कर, गणधर या जैनाचार्य ने नहीं की थी । हम शाह से पूछते हैं कि क्या यह लौंकागच्छीय श्रीपूज्यों व यतियों और उनके उपासकों का अपमान नहीं है ?
जिन धर्मसिंह लवजी को लौं कागच्छीय आचार्यों ने अयोग्य और उत्सूत्रवादी जान कर संघ गच्छ के बाहिर कर दिया था, क्योंकि धर्मसिंह ने तीर्थङ्करों और लौंका गच्छ की श्राज्ञा को भंग कर आठ कोटि का नया मत चलाया, और लवजी ने डोरा डाल दिन भर मुँह पर मुँहपत्ती बाँधने का नया पन्थ निकाला उनको तो शाह ने चतुर्विध संघ के अंदर आसन दिया । और जो खास कर लौंकाशाह के अनुयायी हैं उनको संघ के बाहिर भी आधा श्रासन देने की कल्पना की। इतना ही नहीं किन्तु उन गच्छ बहिष्कृत निन्हव उत्सूत्र वादियों को लौंकागच्छोय श्रीपूज्य और यतियों से उच्च मान कर उल्टा उनसे विनय भाव से वर्त्तने का आदेश दिया, क्या यह शाह का सरासर अन्याय नहीं है ? पाठक वृन्द जैन धर्म में क्रिया की बजाय श्रद्धा की अधिक कीमत है । जमाली ने बहुत कुछ क्रिया की पर श्रद्धा न होने से वह निन्हव उत्सूत्र वादियों की पंक्ति में ही समझा गया । और पार्श्वनाथ प्रभु की साध्वियों में शिथिलाचारिता होने पर भी श्रद्धा के कारण उन्हें एकावतारी बतलाई है । इसका अर्थ कोई यह नहीं कि मैं शिथिलाचार की पुष्टि करता हूँ किंतु श्रद्धा के सामने क्रिया की कोई कीमत नहीं इसे सिद्ध करता हूँ । बिना श्राज्ञा के तो क्रिया उल्टा कर्म बंधन का हेतु होती है यह शास्त्रों से प्रत्यक्ष है। खैर ! कुछ भी हो लौंकागच्छ के यति व श्रीपूज्य शाह के निर्देश
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