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मैनाचार्य ब्राह्मण
धनपाल ब्राह्मण,प्रार्यरक्षितसूरि ब्राह्मण जिनेश्वरसूरि बुद्धिसागरसुरि ब्राह्मण इत्यादि बहुत से ब्राह्मण, जैनाचार्य हुए । जो बड़े २ दिग् विजयी विद्वान् थे, तथा जिन्होंने जैनधर्म की दीक्षा लेकर नाना विषयों के विविध प्रन्थ गद्य-पद्य-मय बनाडाले। जिनमें दार्शनिक, तात्विक, अध्यात्मिक योग ध्यान न्याय, व्याकरण, काव्य अलंकार, छन्द और विधि-विधान के हजारों ग्रंथ बना के उन्होंने साहित्य की संगठित सेवा की थी। और उनका सिद्धान्त भी यही था कि जैसे बने तैसे जैनधर्म का खूब जोरों से प्रचार करना चाहिये । अर्थात् जैन धर्म को विश्व व्यापी बनाने में उन्होंने अत्यन्त परि श्रम किया । तथा संस्कृत साहित्य की अभिनव सृष्टि रच कर संसार में जैनधर्म को एक वारगी खुब चमका दिया जिसकी गर्जना आज भी समग्र संसार में होरही है । पौर्वात्य और पाश्चात्य जैनेतर विद्वान् आज उस साहित्य की मुक्तकण्ठ से भूरि २ प्रशंसा कर रहे हैं ऐसी दशा में क्या यह उचित है कि उन महोपकारी जैनाचार्य ब्राह्मणों की उदारता और विद्वत्ता को हम भूल जायें ? । समझ में नहीं आता कि शाहने क्या जान कर इन जैनाचार्य ब्राह्मण विद्वानों की यह निंदा की है ? तथा संस्कृत साहित्य के प्रति अपनी दूषित अभिरुचि दिखाई है ? संभव है शायद शाह
और शाह के पूर्वजों को पूर्णतया गुजराती भाषा का भी ज्ञान नहीं था तथा साहित्य सेवा के नाम पर शाह के पूर्वजों ने एकाध टूटी फूटी तुक बन्दी भी नहीं बनाई, इसीसे रुष्ट हो यदि शाह ने यह धृष्टता की हो तो हो सकता है। क्योंकि नीति में कहा है कि "साधवः पर संपत्ती खलाः पर विपत्तिषुः" अर्थात् साधुपुरुष दूसरों को सम्पत्ति सम्पन्न देख, खुश होते हैं किन्तु खल (दुष्ट)
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