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स्था० धर्म से जैनों को हानि
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समय लौकाशाह की आज्ञा का निरबाध पालन कर रहे थे पर स्थानकवासियों में न तो जैनत्व है और न लौकात्व है, यही नहीं किन्तु उनमें तो कोई सर्वमान्य नियम भी नहीं हैं, जिनके दिल में जो पाया वे उसे ही मान अपना नया मत निकाल बैठते हैं। प्रमाणार्थ यह बात खुद शाह ही ने अपनी नोंध के पृष्ट १४१ में अपने स्पष्ट शब्दों में लिखदी है कि:__ x x इतना इतिहास लिखने के बाद अब मैं पढ़ने बालों का ध्यान एक बात पर खींचता हूँ कि स्थानकवासीसाधुमार्गी जैनधर्म का जब से पुनर्जन्म हुश्रा और जब से यह धर्म अस्तित्व में आया तब से आज तक यह जोरशोर पर था ही नहीं। अरे ! इसके कुछ निमय भी नहीं थे यतियों से अलग हुए और मूर्ति पूजा छोड़ी कि बस दूँढिया हुआ x x x x मेरी अल्प बुद्धि के अनुसार इस तरकीब से जैनधर्म को बड़ा भारी नुकसान पहुंचा और इन तीनों के १३०० तेरह सौ भेद हुए।
ऐ नों. पृष्ठ १४१ इस हालत में यह समझ में नहीं आता है कि शाह फिर ऐसा आर्डर क्यों निकालते हैं। शायद इसका यह कारण तो नहीं है कि लौकागच्छीय यति व श्रीपूज्य लोग मन्दिर मूर्ति मानते हुए, डोरा डाल दिनभर मुंह पर मुँहपत्ती नहीं बाँधते हैं इसी से तो यह द्वेष पूर्ण दबाव डाला जारहा है । पर शाह को स्मरण रहे कि अब लौकागच्छीय श्रीपूज्य और यति इतने
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