________________
लौंका० श्रीपूजों का अपमान
हुआ है, अतः चाहे जैसा ही दुष्काल क्यों न पड़े पर भावुक भक्त जन तो जहाँ तक मिल सकता है वहाँ तक प्रभु पूजा करके ही भोजन करते हैं, और इसी का ही नाम इष्ट-धर्म है। क्यों समझे न ?
___ xxx
शाह ने इसप्रकार सच्ची झूठी. खबर केवल जैनाचार्यों ही की ली हो सो नहीं किन्तु आप तो लौंकागच्छीय यति और श्री पूज्यों से भी नहीं चूके हैं, चलती राह दो छींटे कीचड़ के उधर भी उछाल दिये हैं। आप अपनी ऐ० नोंध० के पृष्ठ ८१ में लिखते हैं कि:
इस समय चतुर्विध संघ की जगह पंच विध संघ हुआ, अर्थात् साधु साध्वी, श्रावक श्राविका, ऐसे संघ के चार भागों में “यति" अर्धसाधु का एक अंग और भी शामिल हुआxx . तथा इसके अगाड़ी शाह पृष्ट ८४ पर लौकागच्छीय यति
और श्रीपूज्यों के लिए एक झंडेली प्रोडर निकालते हुए लिखते हैं कि:
"श्वेताम्बरी. स्था० साधुओं से यतियों को अकड़ कर नहीं चलना चाहिये। किन्तु अपने से उन्हें उच्चस्थिति का मान कर विनय पूर्वक उनसे वर्तना चाहिऐ x x"
ऐति. नो. पृष्ठ ८४ लौकागच्छीय श्रीपूज्यों एवं यतियों के प्रति शाह का छिपा हुआ यह कितना द्वेष-भाव है कि चतुर्विध संघ से उनका आसन तक निकाल दिया और उनके लिए एक पाँचवें आधे पासन की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org