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हैं कि मेघजी स्थविर ५०० से लौंका गच्छ को छोड़
में मिल गए ।
पूज्य मेघजी स्वामि की पुनः दीक्षा
साधुओं के साथ किसी कारण आचार्य हरिविजयजी के गच्छ
पर शाह को पूछा जाय, कि एक दो साधु तो एक साथ गच्छ से बाहिर यों ही ( जबरदस्त कारण बिना ) निकल सकते हैं पर मात्र ११०० साधुओं में से एक ही साथ ५०० साधुओं का पूर्व मत को त्याग कर दूसरे मत में जा मिलना बिना जबर्दस्त कारण के संभव हो नहीं सकता, अतः अपनी नोंध में यह लिखना जरूरी था कि अमुक कारण से ५०० साधु गच्छ से अलग हुए । हमारी समझ में उन्हें लौंकाशाह का मत कोई कृत्रिम या झूठा तो नहीं जानपड़ा था ? जिससे इन्होंने शीघ्र ही इस मत से अपना पिण्ड छुडा लिया । वस्तुतः देखा जाय तो यह बात ठोक भी है कि प्राचार्य श्री विजयहरिसूरी बड़े भारी विद्वान् और शास्त्रों के मर्मज्ञ थे। जिन्होंने अपनी विद्वत्ता और उपदेश से बादशाह अकबर जैसे यवन सम्राट् के दिल को पिघला दिया, तो बिचारा लुंपक तो किस गिनती में थे जो इनकी प्रखर प्रतिभा के सामने टिक सकते । आचार्यश्री और पूज्य मेघजी का जब सर्व प्रथम समागम हुआ तब मेघजी ने जिज्ञासु भाव से मूर्ति के विषय में आचार्यश्री को सूत्रों के पाठ पूछे । आचार्यश्री ने बड़ी योग्यता से उनका समाधान किया जब उनके दिल में यह सत्य बात जम गई तब इन्होंने “सर्पकुंचकीविमोक" की तरह मिथ्या मत का परित्याग कर पुनः प्राचीन सत्य मत को अपने दल बल साहित स्वीकार कर लिया, और स्वामी मणिलालजी
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