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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता
२७८ शाह एक ओर तो लिखता है कि"दयाधर्म भारत के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तक फैला दिया गया था" और दूसरी
ओर वीरानपुर के नामधारी दयाधर्मियों का यह हाल है कि दसहजार घरों में मात्र उनके २५ घर हैं और वे भी जाति बहिष्कृत तथा कुत्रों पर पानी नहीं भर सकने वाले इत्यादि । . शाह की इन कल्पित कथाओं में सत्यता का कुछ भी अंश है या नहीं इनका निर्णय हम निष्पक्षपाती शाह मताऽवलंबियों पर ही छोड़ देते हैं। शाह के पूर्व ४५० वर्षों में तो ऐसी अघटित बातें किसी ने नहीं लिखी फिर शाह को ही क्या ज्ञान हुआ कि बिना किसी प्रमाण के ऐसी झूठी गप्पें मार शान्त समाज में अशान्ति फैलाने का उद्योग किया। संभव है शाह का यह विचार हो कि स्थानकवासी समाज को इस प्रकार उत्तेजित कर उन्हें शान्त समाज में छेश करने के लिए कमर कस के तैयार किया जाय कि तुम्हारे पूर्वजों को मूर्तिपूजक यतियों ने इस प्रकार नाना कष्ट दिये, अब उन का बदला तुम्हें लेना चाहिये । पर अब जमाना बदल गया है और स्थानकवासी समाज आज इतना भोला और अज्ञानी नहीं है कि शाह की लिखी झूठी गप्पों पर विश्वास कर अपना अहित करने को तैयार हो जायें ।
वास्तव में न तो अहमदाबाद में ढूंढियों का नवलखा उपासरा ही था और न किसी जमाने में अहमदाबाद में ७००० घर हुँढियों के थे । तथा न, अहमदाबाद और बुरानपुर के नामधारी दयाधर्मियों को कभी जाति बहिष्कृत किया था। परन्तु सच पूछा जाय तो उस समय के जैनियों ने यह बड़ी भारी भूल की, यदि उसी समय उत्सूत्र प्ररूपक इन निन्हवों को जाति से अलग
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