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ऐ० नो० की ऐतिहासिकता
२८० करके जैनधर्म में कुसम्प और विरोध फैलाकर जैनों से अपना खास इष्ट छुड़ाकर जैनों का श्राचार व्यवहार दूषित बना कर जैनधर्म को जनता की दृष्टि से गिराने के सिवाय और कुछ भी जैन जगत् का हित नहीं किया है, शाह यदि इस पर भी फूला नहीं समाता है तो इससे बढ़कर शाह की अज्ञानता ही क्या हो सकती है !
प्रिय पाठक वृन्द ! जरा आगे चल कर अब आप शाह के तीन सुधारकों की ओर भी एक निगाह डालिए । शाह के लेखाऽनुसार पूज्य शिवजी बड़े ही प्रभाविक और लौंकाशाह की कीर्ति तथा धर्म को चारों ओर फैलाने वाले हुए, तो फिर समझ में नहीं आता कि शिवजी के सुदृढ़ शासन समय में सुधारकों की क्यों आवश्यकता हुई कि इन्हें अपना सुधार करने को डेढ़ चांवल की खिचड़ी अलग पकानी पड़ी। और वह भी तीनों सुधारक एक ही समय में तीनों के नाम से अलग २ तीन मत निकाले । जैसे(१) धर्मसिह का मत-जिसमें श्रावक के सामायिक पाठकोटि
का मानना जो किन्हीं तीर्थक्कर गणधर जैनाचार्यों ने या लौकाशाह और लौंकाशाह के अनुयायियों ने अब तक
नहीं माना है। (२) लवजी का मत-जिन्होंने मुँहपत्ती में डोराडाल दिन भर
मुंह पर बाँधने की रीति चलाई, यह भी तीर्थक्कर गणधर
जैनाचार्य और लौकाशाह की मान्यता से विरुद्ध थी। (३) धर्मदासजी का मत-ये जैन या लौकागच्छ के तो क्या
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