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-18या तेरहपन्थी मत का सदैव के लिए त्याग किया हो ऐसा नहीं है पर स्थानकवासी श्रारजियों (आर्याओं) ने भी सत्यधर्म की शोध खोज करके इन कल्पित मत का परित्याग किया है जिस में श्रीमती साध्वी धनश्रीजी कल्याणश्रीजी गुणश्रीजी सुमतिश्रीजी. रमणिकश्रीजो आदि कई साध्वियों ने भी संवेगी जैन दीक्षा को स्वीकार किया और वे आज भी विद्यमान हैं और स्थानकवासी श्रावक श्राविकाएँ में तो ऐसा शायद ही कोई वचा हो कि जिन्हों ने अपनी जिन्दगी में एक या अनेक वार तीर्थ यात्रा नहीं की हो ? और यात्रा करने वालों के भाव भो इतने शुभ रहते हैं कि उस समय आयुष्य का वन्ध भी हो तो शुभ गति का ही होता है । ___ अब तो स्थानकवासी समाज भी समझ ने लग गया है कि जैन मन्दिर न जाने से हो हम लोग सरागीदेव कि जहाँ मांस मदिरा चढ़ते हैं वहाँ जाने लग गये और हमारी संतान के भी यही संस्कार पड़ जाते हैं जब ऐसे देव देवियों के पास भी हम जाकर शिर झुको देते हैं तो जैन मन्दिरों में तो हमारा पूज्याराज्य चौवीस तीर्थङ्करों की मूत्तिएँ स्थापित हैं उनके दर्शन मात्र से हमारे दिल में उन्हीं तीर्थकरों की भावना पैदा होती है और वहाँ कहने योग्य नवकार या नमोत्थुणं या चैत्यवन्दन स्तवन स्तुति बोलने में हम उन्हीं तीर्थङ्करों के गुण गाते हैं जो समवसरण स्थित तीर्थङ्करों के गुण गाया करते थे अतः मन्दिर मूर्तियों का इष्ट ही हमारा महोदय का कारण है इसलिए हमें तीर्थ यात्रा और मन्दिर मूर्तियों के दर्शन सदैव करना ही चाहिए।
॥ इति शुभम् ॥
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